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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. आचार्य महाराज की आज्ञा से हम ५-६ साधक सतना में चातुर्मास करके लौट रहे थे। आचार्य महाराज के दर्शन हमें लगभग डेढ़ वर्ष से नहीं हुए थे। मन में दर्शन की बड़ी आतुरता थी। जबलपुर के समीप पहुँचने पर मालूम हुआ कि महाराज जी, शीघ्र ही जबलपुर पहुँच रहे हैं। अत्यन्त हर्ष-विभोर होकर हम उन्हें लिवाने जबलपुर से बरगी की ओर चल पड़े। कुछ दूर चलने पर रास्ते में ही महाराजजी के दर्शन-वंदन का सौभाग्य मिल गया। जब उनके साथ-साथ हम जबलपुर की ओर आ रहे थे तब रास्ते में हमने सतना के चातुर्मास की सफलता की चर्चा की और कहा कि जो भी बन पड़ा आपकी कृपा से हमने किया; सब अच्छे से हो गया। साधना, स्वास्थ्य और स्वाध्याय की अनुकूलता रही। आचार्य महाराज सब सुनते रहे और सुनकर हँसने लगे, बोले - "कृपा तो हम सभी पर आचार्य ज्ञानसागर महाराज की है। भगवान् महावीर के धर्म-तीर्थ की सेवा करना और अपने आत्म-हित के साथ-साथ सभी के हित की भावना रखना हमारा कर्तव्य है।” उनकी अपने गुरु के प्रति श्रद्धा, भक्ति और समर्पण उन क्षणों में देखते ही बनता था। इतने में जैसे ही अचानक उन्हें अन्य साधुओं के कहने पर याद आया कि आज के ही दिन बारह वर्ष पहले मेरी क्षुल्लक दीक्षा हुई थी, तो तुरन्त मेरा हाथ अपने हाथ में पकड़कर खूब हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि "चलो, अभी तो इस मोक्षमार्ग पर अपने को बहुत आगे बढ़ना है।” उनका स्नेहस्पर्श पाकर और उनकी वाणी से झरते अमृतवचन सुनकर हृदय भर आया। आँखें आँसुओं से भीग गई। उन आत्मीय-क्षणों की स्मृति आज भी मुझे सहारा और प्रेरणा देती है। जबलपुर (१o जनवरी, १९९२)
  2. आचार्य महाराज कभी किसी से आने-जाने या ठहरने के बावत् कोई चर्चा नहीं करते। एक बार महाराज से किसी ने कहा कि महाराज आप अपने पास आने-जाने वाले व्यक्ति से बैठने के लिए भी नहीं कहते। अच्छा नहीं लगता। इतना शिष्टाचार तो साधु के द्वारा होना चाहिए। आचार्य महाराज ने सारी बात बड़े ध्यान से सुनी और मुस्कराकर बोले- ‘ भैया! यह स्थान मेरा तो है नहीं, जो यहाँ बैठने के लिए कहूँ। साथ ही आने-जाने की अनुमोदना भी मैं कैसे कर सकता हूँ, क्योंकि आने-जाने वाला तो वाहन का उपयोग करेगा, जिसका मैं त्याग कर चुका हूँ और मान लो, वह व्यक्ति मात्र दर्शन करके जाना चाहता हो तो मेरे कहने से उसे जबरदस्ती बैठना पड़ेगा।” आचार्यों का उपदेश तो साधु के लिए केवल इतना ही है कि वे आने वाले व्यक्तियों को हाथ की अभय-मुद्रा से कल्याण का संकेत दे और मुख पर प्रसाद (प्रसन्नता) बिखेर दे। यही शिष्टाचार पर्याप्त है। यही साधु की विनय है। कितना अनासक्त और सुविचारित है उनका शिष्टाचार।
  3. मैंने सुना है एक दिन रात्रि के समय जब लोग आचार्य महाराज की सेवा में व्यस्त थे तब किसी की ठोकर लगने से तेल की शीशी गिर गई। शीशी का ढक्कन खुला था सो तेल भी फैल गया। सभी थोड़ा घबराए, पर आचार्य महाराज मुस्कराते रहे। सुबह आचार्य वंदना के बाद आचार्य महाराज चर्चा करते-करते बोले कि ‘देखो शिष्य और शीशी दोनों में डाट लगाना कितना जरूरी है। जैसे शीशी में डाँट (ढक्कन) न लगा हो तो उसमें रखी कीमती चीज गिर जाती है, ऐसे ही शिष्य को डॉट (अनुशासन के लिए कठोरता) न लगाई जाए तो स्वच्छन्द होने और मोक्षमार्ग से विचलित होने या गिर जाने की संभावना बढ़ जाती है।” शीशी गिरने की इस जरा-सी घटना से इतना बड़ा संदेश दे देना यह आचार्य महाराज की विशेषता है।
  4. सिवनी के बड़े मन्दिर में आचार्य महाराज विराजे थे। वयोवृद्ध पंडित सुमेरुचंद्र जी दिवाकर उनके दर्शन करने आए। तत्वचर्चा चलती रही। जाते समय पंडित जी बोले कि महाराज- "हमें तो आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ने एक बार मंत्र जपने के लिए माला दी थी, जो अभी तक हमारे पास है।” पंडित जी का आशय था कि आप भी हमें कुछ दें, पर आचार्य महाराज तत्काल बोले कि-‘‘पंडितजी! हमें तो हमारे आचार्य महाराज मालामाल कर गए हैं।" माला की लय में मालामाल सुनकर सभी हँसने लगे। इस स्वस्थ मनोविनोद में अपने पूर्वाचार्यों के प्रति विनम्र-श्रद्धा, उनसे प्राप्त मोक्षमार्ग के प्रति गौरव और अपनी लघुता-ये सभी बातें छिपी थीं। साथ ही एक संदेश भी पंडितजी के लिए या शायद सभी के लिए था कि, चाहो तो महाव्रती होकर स्वयं भी मालामाल हो जाओ, अकेली माला कब तक जपते रहोगे ? सिवनी (१९९१)
  5. मुक्तागिरि का चातुर्मास सानंद सम्पन्न हुआ। आचार्य महाराज संघ सहित रामटेक (अतिशय क्षेत्र) होते हुए बालाघाट पहुँचे। सुबह संघ सहित शौच क्रिया के लिए जंगल की ओर गए। वहाँ वन-विभाग के ऑफीसर के बँगले पर दो शेर के बच्चे खेलते हुए मिले। सारा संघ क्षणभर की वहाँ ठहर गया। वन विभाग के ऑफीसर ने उन बच्चों के मिलने की जानकारी दी। आचार्य महाराज सारी बातें चुपचाप सुनते रहे, फिर सहसा बोले कि-‘‘हे वनराज! जैसे देश-काल की परिस्थितिवश आज तुम वन के स्थान पर भवन में रह रहे हो ऐसे ही वनों में निर्द्धन्द्ध विचरण करने वाले मुनिराजों ने नगर में रहना स्वीकार तो कर लिया है; पर यह हमारा स्वभाव नहीं है। हमें अपना यथाजात, एकाकी, निर्द्धन्द्ध विचरण करने का स्वभाव नहीं भूलना चाहिए।” उन क्षणों में आचार्य महाराज की निस्पृहता और स्वभाव की ओर रुचि देखते ही बनती थी। सभी लोग उनके द्वारा दी गई इस अध्यात्म की शिक्षा से अभिभूत हो गए। बालाघाट (१९९१)
  6. धर्म-सभा का आयोजन था। आचार्य महाराज का प्रवचन होने वाला था। सहसा भीड़ में हलचल हुई और एक वृद्धा माँ मंच तक पहुँच गई। स्वयंसेवक दौड़े, उन्हें रोकना चाहा, पर इस बीच वह प्रणाम निवेदित करके अपने कुछ स्वर्ण-आभूषण उतारकर महाराज के चरणों में अर्पित करने लगीं। सभी अवाक् देखते रह गए। मालूम पड़ा कि वह वृद्धा माँ, जन्मना जैन नहीं हैं पर कर्मणा जैन अवश्य है। उसने आज पहली बार आचार्य महाराज के दर्शन किए हैं और उनकी वीतरागता और त्याग, तपस्या से अभिभूत होकर अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया है। उस क्षण उसका भक्ति-भाव देखकर लगा कि धर्म सभी का है। जो सच्ची दृष्टि दे, सच्चा ज्ञान दे और सच्चा रास्ता बताए, वही सच्चा धर्म और सच्चा गुरु है। मुक्तागिरि (१९९o)
  7. जबलपुर से मुक्तागिरि की ओर आचार्य महाराज का विहार हुआ। मुलताई के आसपास रास्ते में एक दिन बहुत तेज बारिश आ गई। थोड़ी देर पानी बरसता रहा, फिर थम गया। महाराज मुस्कराए और आगे बढ़ते बढ़ते बोले- ‘‘भाई! इतनी जल्दी थककर थम गए। हम तो अभी नहीं थके।" उनका इशारा बादलों की ओर था। सभी हँसने लगे। आचार्य महाराज ने इस तरह चलते-चलते एक संदेश दे दिया कि कितनी भी बारिश आए, धूप हो या ठंड लगे; मोक्षार्थी को बिना थके सहज शान्त-भाव से अपने मोक्षमार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ते रहना चाहिए। कितनी छोटी सी बात, लेकिन कितना बड़ा उपदेश।
  8. टड़ा से वापस लौटकर आचार्य महाराज की आज्ञा से महावीरजयन्ती सागर में सानंद सम्पन्न हुई, फिर आदेश मिला कि ग्रीष्मकाल में कटनी पहुँचना है। गर्मी दिनों-दिन बढ़ रही थी। तेज धूप, और लम्बा रास्ता, पर मन में गहरी श्रद्धा थी। गुरु के आदेश का पूरे मन से पालन करना ही शिष्यत्व की कसौटी है। आदेश मिलते ही उसी दिन दोपहर में हमने विहार करने का मन बना लिया और सामायिक में बैठ गए। सामायिक से उठकर बाहर आए तो देखा कि आकाश में बादल छा रहे हैं। धूप नम हो गई है। हमने तुरन्त विहार कर दिया और बड़ी आसानी से शाम होने से पहले लगभग बीस किलोमीटर रास्ता तय कर लिया। फिर तो प्रतिदिन ऐसा ही हुआ। कटनी पहुँचने तक प्रतिदिन दोपहर में बादल छा जाते और हमारी यात्रा आसान हो जाती। कटनी पहुँचकर जब हमें मालूम पड़ा कि आचार्य महाराज ने दो-तीन बार चिन्ता व्यक्त की थी कि ‘‘आदेश तो हमने दे दिया, पर मई का महीना है, धूप बहुत कड़ी है, विहार में मुश्किल न हो।” तब हम विस्मय और आनन्द से भर गए। इतनी दूर रहकर भी अपने शिष्यों के प्रति आचार्य महाराज की आत्मीयता इतनी सघन है कि पथ में छाया बनकर वही हमें सँभालती व शीतलता देती रही। उनकी अनुकम्पा अपरम्पार है। कटनी (१९८९)
  9. टड़ा ग्राम में गजरथ महोत्सव होना था। वहाँ के लोग आचार्य महाराज से निवेदन करने आए। महाराज जी ने हम तीन-चार साधुओं को बुलाकर वहाँ जाने का संकेत कर दिया। हमने उनके चरणों में माथा टेककर आज्ञा स्वीकार कर ली और जाना तय हो गया। विहार करने से पहले हम सभी को अपने समीप बुलाकर आचार्य महाराज ने समझाया कि सुनो - ‘छोटे-छोटे से गाँवों में होकर जाना है, दो-चार लोग भी आकर यदि निवेदन करें तो धर्म की दो बातें करुणाभाव से उन्हें सुनाना। धर्मोपदेश तो स्व-पर कल्याण के लिए है। कम लोग हैं, ऐसा सोचकर मना मत करना। दूसरी बात, वहाँ जो भी आगम के अनुकूल आत्मकल्याण में लगे हुए साधुजन आएँ, उन्हें यथायोग्य विनय करना और राग-द्वेष से बचना। तीसरी बात, भगवान् के दीक्षा-कल्याणक के समय अपनी तरफ से दीक्षा-संस्कार करने का आग्रह मत करना, भगवान् तो स्वयं दीक्षित होते हैं।' हम सभी ने तीनों बातें मार्ग में पाथेय की तरह अपनी स्मृति में बाँधकर रख लीं और महाराज जी का आशीर्वाद लेकर चल पड़े। रास्ते में वही हुआ। छोटे-छोटे गाँव मिले। सभी को धर्मोपदेश दिया, खूब आनन्द आया। मार्ग में दो साधु-संघों से मिलना हुआ, सभी से यथायोग्य विनय की। कहीं कोई मुश्किल नहीं आई। दीक्षा-कल्याणक का दिन आया। सभी साधु-संघ एक ही मंच पर उपस्थित थे। उनमें एक मुनिराज हमसे दीक्षा में ज्येष्ठ थे। दीक्षाविधि उन्हीं के द्वारा सम्पन्न होना चाहिए, ऐसा हमारा सोचना था, पर अचानक मंच पर सभी ने हमसे दीक्षा-विधि सम्पन्न करने का आग्रह किया। सभी का आग्रह देखकर आचार्य महाराज की जय-जयकार के साथ हमने दीक्षा-विधि सम्पन्न की। सारा वातावरण पवित्र हो गया। हमारी आँखें भर आईं। सभी के पूछने पर जब हमने महाराज जी के द्वारा दी गई तीन शिक्षाएँ लोगों को बताई, तब सभी आचार्य महाराज की दूरदर्शिता की सराहना करके उनकी जय-जयकार करने लगे। टड़ा (१९८९)
  10. आचार्य महाराज संघ सहित विहार कर रहे थे। खुरई नगर में प्रवेश होने वाला था। अचानक एक गरीब-सा दिखने वाला व्यक्ति साइकिल पर अपनी आजीविका का बोझ लिए समीप से निकला और थोड़ी दूर आगे जाकर ठहर गया। जैसे ही आचार्य महाराज उसके सामने से निकले, वह भाव-विह्वल होकर उनके श्रीचरणों में गिर पड़ा। गदगद कंठ से बोला कि— “ भगवान् राम की जय हो।" आचार्य महाराज ने क्षण भर को उसे देखा और अत्यन्त करुणा से भरकर धर्मवृद्धि का आशीष दिया और आगे बढ़ गए। वह व्यक्ति हर्ष-विभोर होकर बहुत देर तक, आगे बढ़ते हुए आचार्य महाराज की वीतरागता छवि को अपलक देखता रहा। इस घटना को सुनकर मुझे लगा कि वीतराग के प्रति अनुराग हमें अनायास ही आत्म-आनन्द देता हैं। उन क्षणों में उस व्यक्ति की आँखों में आचार्य महाराज की वीतराग छवि अत्यन्त मधुर और दिव्य रही होगी, जो हम सभी को आत्मकल्याण का संदेश देती है। खुरई (१९८८)
  11. पंचकल्याणक पूरे हुए। गजरथ की प्रदक्षिणा होनी थी। दो-तीन लाख लोग क्षेत्र पर उपस्थित हुए थे। यह सब आचार्य महाराज के पुण्य-प्रताप का फल था। देखते ही देखते यथा समय गजरथ की फेरी सम्पन्न हो गई और महाराज संघ सहित प्रतिष्ठा-मंच पर विराज गए। आशीर्वचन सुनने का सभी का मन था। इसी बीच कई लोगों ने एक साथ आकर अत्यन्त हर्ष-विभोर होकर कहा कि ‘आज जो भी हुआ, वह अद्भुत हुआ है, उसे आपका आशीर्वाद और चमत्कार ही मानना चाहिए। आज के दिन इतने कम साधनों के बावजूद भी लाखों लोगों के लिए पानी की पूर्ति कर पाना संभव नहीं था। हम सभी व्यवस्था करके हताश हो गए थे। प्रशासन ने चार-पाँच ट्यूबवैल खोदे थे; किन्तु पर्याप्त मात्रा में पानी न मिलने पर वह प्रयास भी निष्फल रहा। टैंकर से पानी की व्यवस्था कहाँ तक पूरी हो पाती, पर जैसे ही गजरथ की फेरी प्रारम्भ हुई, गजरथ स्थल के समीप जहाँ आपके आशीर्वाद से एक ट्यूबवैल खोदा गया था उसमें खूब पानी निकला। सभी लोगों ने पूरी फेरी होने तक पानी पिया, इस तरह आपके आशीष व कृपा से यह समस्या हल हो गई। चमत्कार हो गया। आचार्य महाराज ने बडी शांति से सारी बात सुनी, फिर अत्यन्त निर्लिप्त होकर कहा कि-"भैया! धर्म की प्रभावना तो चतुर्विध संघ के द्वारा इस पंचमकाल में निरन्तर होती रहेगी। इसमें हमारा क्या हैं ? जहाँ हजारों-लाखों लोगों की सद्भावनाएँ जुड़ती हैं वहाँ कठिन से कठिन काम भी आसान हो जाते हैं। भव्य जीव इस पावन क्षेत्र पर आकर प्यासे कैसे लौट सकते हैं, सभी की प्यास बुझे ऐसी परस्पर सद्भावना ही आज के इस कार्य में सफलता का कारण बनी है, हम तो निमित्त मात्र हैं।” सुनकर सभी दंग रह गए। स्वयं को ख्याति, पूजा, लाभ से बचाए रखने वाले ऐसे निस्पृही आचार्य का समागम मिलना हमारा/सभी का सौभाग्य ही है। नैनागिरि (१९८७)
  12. जिनबिंब-प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव का आयोजन था। अपार जनसमूह के बीच पहली बार आचार्य महाराज ने आर्यिका-दीक्षाएँ दीं। एक ही मंच पर ग्यारह आर्यिका और बारह क्षुल्लक दीक्षाएँ सम्पन्न हुई। क्षेत्र की माटी का कण-कण उस दिन महाराज के चरणों में विनत हुआ। सन् १९७८ में इसी पावन-क्षेत्र पर हमने आचार्य महाराज को अपने चार पाँच शिष्यों के साथ आत्मसाधना में लीन रहते देखा था। आज आठ-नौ वर्षों बाद एक साथ छियालीस मुनि, आर्यिका, ऐलक व क्षुल्लक के विशाल परिकर के बीच उन्हें उतना ही निलिप्त व आत्मस्थ देखकर मन गदगद् हो उठा। सुबह आचार्य-वंदना के समय अत्यन्त भाव-विहृल होकर हमने कहा कि ‘महाराज जी! आज हम सभी के लिए थोड़ा कुछ संदेश दीजिए।' उन्होंने क्षण भर हमारी ओर देखकर बड़ी आत्मीयता से कहा कि-‘तुम सभी पुण्यात्मा हो। पूर्व संचित पुण्य के फलस्वरूप एक साथ धर्म-मार्ग पर बढ़ रहे हो। मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन हमेशा बनाए रखना। जब प्रवृत्ति करो तो यह मानकर चलना कि हम सभी एक साथ हैं और मोक्षमार्गी हैं, सो परस्पर सहयोगी बनना, हमारा पहला कर्तव्य है। लेकिन सामायिक के समय सबसे निवृत्त होकर अपने को एकाकी ही मानना और अनुभव करना कि आत्मस्थ होना ही हमारा परम कर्तव्य है। यही हमारा तुम सबके लिए संक्षेप में संदेश है।' सभी ने सुना, मन अत्यन्त हर्षित हुआ। उस दिन लगा कि आचार्य महाराज ने जो स्वयं जिया, उसे ही हमें दिया। नैनागिरि (१९८७)
  13. अहारजी सिद्ध क्षेत्र पर चातुर्मास के उपरान्त आचार्य महाराज संघ-सहित सिद्ध क्षेत्र नैनागिरि आ गए। शीतकाल यहीं बीत गया। एक दिन अचानक दोपहर में आचार्य महाराज ने बुलाया। मुनि श्री योगसागर जी भी आए। मैं भी पहुँचा। आचार्य महाराज बोले कि-‘‘ऐसा सोचा है कि तुम दो-तीन साधु मिलकर सागर की ओर विहार करो। वहाँ स्वास्थ्य लाभ भी हो जाएगा और धर्मप्रभावना भी होगी। तुम सभी को अब बाहर रहकर धीरे-धीरे सब बातें सीखनी हैं।" संघ में पहली बार हम लोगों पर यह जिम्मेदारी आई थी, सो हम घबराए कि ऐसा तो कभी सोचा भी नहीं था। हम तो अपना जीवन आचार्य महाराज के चरणों में समर्पित करके निश्चित होकर आत्मकल्याण में लगे थे। कुछ समझ में नहीं आया। गुरु की आज्ञा अनुल्लंघनीय हुआ करती है, पर मन को कैसे समझाएँ? मन भर आया। हमने कहा कि-‘महाराज जी! आपसे दूर रहकर हम क्या करेंगे ? कैसे रह पाएँगे?” आचार्य महाराज गम्भीर हो गए। बोले-"मन से दूर चले जाओगे क्या ?” हमने फौरन कहा कि-‘‘यह तो कभी संभव ही नहीं। स्वप्न में भी नहीं।” तब वे हँसने लगे। बोले कि-‘जाओ हमारा खूब आशीर्वाद है। घबराना नहीं। अध्यात्म में मन लगाना। मेरी आज्ञा में रहने वाला मुझसे दूर रहकर भी मेरे अत्यन्त समीप ही है और मेरी आज्ञा नहीं मानने वाला मेरे निकट रहकर भी मुझसे बहुत दूर है।” आज भी हम उनसे दूर रहकर भी उन्हें अपने अत्यन्त समीप पाते हैं। कभी दूरी का अहसास नहीं होता। सचमुच, गुरु की आज्ञा में रहना ही सच्चा सामीप्य है। नैनागिरि (१९८६)
  14. चातुर्मास स्थापना का समय था। क्षुल्लक सुमतिसागर जी की मुनि बनने की बड़ी भावना थी। साधना भी थी, पर वृद्ध हो गए थे। आचार्य महाराज ने उनकी भावना के अनुरूप उन्हें मुनि-दीक्षा दे दी। अब वे मुनि वैराग्यसागर हो गए। दो-तीन माह तक उन्होंने महाव्रतों का बड़ी सावधानी से पालन किया, जीवन का अन्त निकट जानकर और वृद्धावस्था का विचार करके आचार्य महाराज से सल्लेखना ग्रहण कर ली। मुनि की आहार-चर्या सर्वोत्कृष्ट है। स्वस्थ व अस्वस्थ हर दशा में समताभाव रखकर निर्दोष-विधिपूर्वक आहार ग्रहण करना आसान काम नहीं है। एक दिन विधिपूर्वक पड़गाहन के बाद जब वे जल ग्रहण करने के लिए खड़े हुए तो अंजुलि बाँधकर जल-ग्रहण करना मुश्किलसा लगा। जल नीचे गिर गया। आचार्य महाराज समीप ही खड़े थे। बोले- "चाहो तो गिलास ले लो।” हम सभी यह बात सुनकर चकित हुए, पर समझ गए कि परीक्षा की घड़ी है। सल्लेखना ग्रहण करने वाले क्षपक की परीक्षा प्रतिक्षण है। अत्यन्त वृद्ध होने के बाद भी एक सच्चे महाव्रती की तरह मुनि वैराग्यसागर जी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया और शान्त भाव से अन्न-जल का जीवनपर्यन्त के लिए त्याग करके यम सल्लेखना धारण कर ली। आचार्य महाराज ने मुस्कराकर आशीर्वाद दिया और कहा कि सभी को इस परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिए और परीक्षा में उतीर्ण होने की तैयारी जीवन भर करते रहना चाहिए। आहारजी (१९८५)
  15. दुर्ग में लगभग अठारह दिन आचार्य महाराज संघ सहित ठहरे। एक दिन विहार होने वाला था। महाराज जी विहार से पहले दर्शन करने मन्दिर जी गए। लोगों को विहार का आभास हो गया। सभी लोग भागेभागे मन्दिर में आ गए। जैसे ही महाराज जी दर्शन करके सीढ़ियाँ उतरने लगे, सभी ने उनके पैर पकड़ लिए। कुछ लोग तो सीढ़ियों पर ही लेट गए कि हम गमन नहीं करने देंगे। समय बीतता गया, आग्रह और भीड़ निरन्तर बढ़ती गई। एक वीतरागी के प्रति लोगों का अनुराग उस दिन देखते ही बनता था, पर आचार्य महाराज उस दिन विहार के लिए दृढ़-संकल्पित थे। सो रुकना संभव नहीं था। विलम्ब हो जाने के बाद भी विहार हुआ। लोगों ने उनका अनुगमन किया। बहुत दूर तक पीछे-पीछे गए। सभी के मन में था कि कुछ दिन महाराज और रुकते तो अच्छा रहता। पर साथ ही साथ यह भी अहसास हुआ कि मोक्षमार्ग पर दृढ़ संकल्पित होकर अविचल बढ़ते रहना, सदा नदी की तरह गतिशील रहना, यही सच्चे मोक्षार्थी की पहचान है। दुर्ग (१९८४)
  16. कलकत्ता प्रवास के उपरान्त आचार्य महाराज संघ सहित तीर्थक्षेत्र उदयगिरि-खण्डगिरि पहुँचे। वहाँ कुछ दिन रुककर संबलपुर होकर रायपुर की ओर बढ़ते हुए रास्ते में एक स्थान ‘अनगुल' में रुकना हुआ। स्थान एकदम अपरिचित था। जैन समाज वहाँ नहीं था। अन्य लोगों ने भी कभी जैन साधुओं को नहीं देखा था, सो सहज उत्सुकता थी । आहार-चर्या के उपरान्त हाई स्कूल के प्रांगण में ही रुकने का मन था, पर बच्चों के शोर के कारण समीप ही एक धर्मशाला में सामायिक के लिए श्रावकों ने निवेदन किया। श्रावक इस बात से भी भयभीत थे कि कहीं बच्चे उपद्रव न करें। सामायिक के उपरान्त बहुत सारी भीड़ धर्मशाला के समीप इकट्ठी हो गई। जो श्रावक साथ में थे, वे घबराए कि कहीं कोई अप्रिय घटना न हो जाए। सो सभी ने आचार्य महाराज से निवेदन किया कि ऐसे समय में आप मंत्र आदि के माध्यम से स्थिति पर नियंत्रण करें। मैंने भी बिना सोचे-समझे इस बात का समर्थन कर दिया। श्रावकों से आचार्य महाराज ने कुछ नहीं कहा। हमारी ओर देखकर बोले कि-‘अध्यात्म को भूल गए? साधना तो समत्व की होनी चाहिए। साधु को नि:प्रतिकार होना चाहिए। आत्मा की अनन्त शक्ति को पहेचानो। वीतरागता के प्रभाव पर विश्वास रखो। चलो विहार करें।” और सहज, शान्त भाव से सीढ़ियाँ उतरने लगे। सारा संघ पीछे-पीछे हो गया। जैसे-जैसे आचार्य महाराज आगे बढ़ते जाते थे भीड़ एक ओर हटती जाती थी। यह देखकर सभी दंग रह गए। समत्व की साधना का अतिशय मेरे मन पर आज भी ज्यों का त्यों अंकित है और संबल देता रहता है। अनगुल (१९८४)
  17. ईसरी में वर्षायोग पूरा हुआ। आचार्य महाराज ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन कलकत्ता में प्रतिवर्ष होने वाले भगवान् पार्श्वनाथ के उत्सव में पहुँचने का मन बना लिया, लेकिन हमेशा के अपने अतिथि स्वभाव के अनुरूप किसी से बिना कुछ बताये कलकत्ता की ओर चल पड़े। लोगों में तरह-तरह की चर्चाएँ होने लगीं। मार्ग दुर्गम है। मार्ग में श्रावकों के घर नहीं हैं। बड़ा अशान्त क्षेत्र है। बंगाल के लोग पता नहीं कैसा व्यवहार करेंगे। महाराज को वहाँ नहीं जाना चाहिए। कलकत्ता से श्रावक आए। निवेदन किया कि "बंगाल सुरक्षित प्रदेश नहीं है। आप वहाँ पधारें, ऐसी हम सभी की भावना तो है, लेकिन भय भी लगता है।” आचार्य महाराज हमेशा की तरह मुस्कराए, अभय-मुद्रा में हाथ उठाकर आशीष दिया और आगे बढ़ गए। यात्रा चलती रही। निरन्तर बढ़ते कदमों से गूंजता मंगल-गान, लोगों के मन को आगामी मंगल का आश्वासन देता रहा और देखते देखते साढ़े तीन सौ किलोमीटर की दूरी दस दिन में तय हो गई। ग्यारहवें दिन जब अपने संघ के साथ आचार्य महाराज ने कलकत्ता में प्रवेश किया तब हजारों लोग उनके दृढ़ संकल्प के सामने सिर झुकाए खड़े थे। उस दिन वह महानगर, महाव्रती दिगम्बर जैन आचार्य की चरण-धूलि पाकर धन्य हो गया। बड़ा मन्दिर से बेलगछिया तक हजारों लोगों के बीच उनका सहज भाव से गुजरना आम आदमी के लिए अद्भुत घटना थी। देखने वालों ने उस दिन यही कहा कि बेशकीमती साजो-सामान, और विशाल शोभायात्रा के बीच अनेक श्रमणों में परिवेष्टित जैनों के एक महान्आचार्य के दर्शन करके हम धन्य हो गए। उस दिन रास्ते में खड़े लोगों और घरों की खुली खिड़कियों से झाँकती हजारों आँखों ने बालकवत् यथाजात निग्रन्थ श्रमण के पवित्र सौन्दर्य को देखकर और कुछ भी देखने से इंकार कर दिया। सचमुच, विद्या-रथ पर आरूढ़ होकर, ख्याति, पूजा, लाभ आदि समस्त मनोरथों को रोककर, जो श्रमण-भगवन्त विचरण करते हैं उनके दृढ़-संकल्प से धर्म-प्रभावना सहज ही होती रहती है। कलकत्ता (१९८३)
  18. जिनेन्द्र वर्णी ने अन्त समय में आचार्य महाराज को अपना गुरु बनाकर उनके श्रीचरणों में समाधि के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया था। सल्लेखना अभी प्रारम्भ नहीं हुई थी, इससे पहले ही एक दिन अचानक संघ सहित आचार्य महाराज बिना किसी से कुछ कहे ईसरी से नीमिया-घाट होकर पार्श्वनाथ टोंक की ओर वंदना करने के लिए निकल पड़े। सारा दिन वंदना में बीत गया, ईसरी आश्रम आते-आते शाम हो गई। चूँकि बिना किसी पूर्व सूचना के यह सब हुआ, इसलिए वर्णी जी दिन भर बहुत चिंतित रहे कि पता नहीं आचार्य महाराज कब लौटेंगे। जैसे ही ईसरी आश्रम में आचार्य महाराज लौटकर आए, वर्णी जी ने उनके चरणों में माथा रख दिया। आँखों में आँसू भर आए। अवरुद्ध कंठ से बोले कि- ‘महाराज आप मुझे बिना बताए अकेला छोड़कर चले गए। मन बहुत घबराया। मुझे तो अब आपका ही सहारा है। मेरे जीवन के अंतिम समय में अब सब आपको ही सँभालना है।' आचार्य महाराज क्षण भर को गम्भीर हो गए, फिर मुस्कुराकर बोले कि ‘वर्णी जी! सल्लेखना तो आत्माश्रित है। अपने भावों की संभाल आपको स्वयं करनी है। अपने उपादान को जाग्रत रखिए, मैं तो निमित्त मात्र हूँ।” इस तरह अपने प्रति समर्पित हर शिष्य को सँभालना, सहारा देना, संयम के प्रति जाग्रत रखना और निरन्तर आत्म-कल्याण की शिक्षा देते रहना, परन्तु स्वयं असम्पृक्त रहना, यह उनकी विशेषता है। ईसरी (१९८३)
  19. ठंड के दिन थे। दिन ढलने से पहले आचार्य महाराज संघ-सहित बण्डा ग्राम पहुँचे। रात्रि-विश्राम के लिए मन्दिर के ऊपर एक कमरे में सारा संघ ठहरा। कमरे का छप्पर लगभग टूटा था। खिड़कियाँ भी खूब थीं और दरवाजा काँच के अभाव से खुला न खुला बराबर ही था। जैसे-जैसे रात अधिक हुई, ठंड़ भी बढ़ गई। सभी साधुओं के पास मात्र एक-एक चटाई थी। घास किसी ने ली नहीं थी। सारी रात बैठे-बैठे ही गुजर गई। सुबह हुई, आचार्य-वंदना के बाद आचार्य महाराज ने मुस्कराते हुए पूछा कि रात में ठंड ज्यादा थी, मन में क्या विचार आए बताओ ? हम सोच में पड़ गए कि क्या कहें, पर साहस करके तत्काल कहा कि‘महाराज जी ठंड बहुत थी, मन में विचार आ रहा था कि एक चटाई और होती तो ठीक रहता।” इतना सुनते ही उनके चेहरे पर हर्ष छा गया। बोले ‘देखो, त्याग का यही महत्व है। तुम सभी के मन में शीत से बचने के लिए त्यागी हुई वस्तुओं को ग्रहण करने का विचार भी नहीं आया। मुझे तुम सबसे यही आशा थी। हमेशा त्याग के प्रति सजग रहना। त्यागी गई वस्तु के ग्रहण का भाव मन में न आए, यह सावधानी रखना।' उनका यह उद्बोधन हमें जीवन भर सँभालता रहेगा। बण्डा (१९८२)
  20. चातुर्मास का समय था। इस बार अध्ययन, चिन्तन व मनन के साथ-साथ चार सल्लेखनाएँ निकट से देखने और अपने जीवन में उनसे शिक्षा लेने का अवसर भी सारे संघ को मिला। बड़ी सजगता और सावधानी का काम था। सल्लेखना, साधक की अन्तिम परीक्षा है। भावों की सँभाल करना और निर्मलता बनाए रखना आसान नहीं है। पूर्वोपार्जित पुण्य, वर्तमान-पुरुषार्थ एवं बाह्य योग्य संयोग सभी के ठीकठीक मिलने पर ही ऐसे कार्य सम्पन्न होते हैं। सल्लेखना ग्रहण करने वाले एक साधक के मन में त्याग करने के बाद भी एक दिन आहार के समय सेवफल ग्रहण करने का भाव आ गया। आचार्य महाराज ने सारी बात समझकर निर्देश दे दिया कि, इच्छा हो तो दे दो। सेवफल दिया गया, पर शरीर की असक्तता के कारण थोड़ा-सा ही लिया गया, शेष नीचे गिर गया। साधक का मन इससे बड़ा व्यथित हुआ और आत्म-ग्लानि से भर गया। उन्होंने आचार्य महाराज के पास पहुँचकर अत्यन्त विनम्रता से आलोचना की और जीवनपर्यन्त सभी चीजों का त्याग कर दिया। फिर अंत तक उनका मन शान्त व निर्मल बना रहा। उनकी अंतिम साँस महामंत्रोच्चार के साथ निकली। आचार्य महाराज की कृपा और कुशल निर्देशन से उनके भीतर सच्ची विरक्ति उत्पन्न हुई। वे पुन: अपने आप में स्थिर हो गए। आचार्य-महाराज के व्यक्तित्व में समाए श्रेष्ठ निर्यापकत्व गुण को देखकर हम सब श्रद्धावन्त हो गए। नैनागिरि (१९८२)
  21. मुनि दीक्षा के लगभग दो माह बाद ही मैं व्याधिग्रस्त हो गया। आहार में मुश्किल होने लगी। आहार लेते ही वमन हो जाता था। तब आचार्य महाराज स्वयं आहार-चर्या के समय उपस्थित रहते थे। दूर खड़े रहकर भी उनकी अनुकम्पा निरन्तर बरसती रहती थी। एक दिन आहार प्रारम्भ होते ही अंजुली में बाल का संदेह हुआ। सभी ने एक स्वर में कह दिया, बाल नहीं है। शायद अस्वस्थता देखकर लोगों ने झूठ बोला था। मैंने उन संवेदनशील निर्णायक क्षणों में जैसे ही समीप में खड़े आचार्य महाराज की ओर देखा तो वे तत्काल दूसरी ओर देखने लगे। मुझे लगा, मानो वे कह रहे हों कि-‘तुम महाव्रती हो। एषणा समिति तुम्हारा मूलगुण है, निर्णय तुम स्वयं लो। अयाचक सिंह-वृत्ति रखो।' मुझे निर्णय क्या लेना था, बाल था, सो मैं अन्तराय मानकर बैठ गया। वे मुस्कराये और खूब आशीर्वाद देकर चले गए। पूरा दिन अस्वस्थता के बावजूद भी शान्ति से बीता। आत्मीयता के साथ-साथ आत्मानुशासन की शिक्षा देकर आचार्य महाराज ने हम पर असीम उपकार किया। नैनागिरि (१९८२)
  22. चातुर्मास में पयुर्षण-पर्व से पहले हम तीन साधुओं की मुनि-दीक्षा सम्पन्न हुई। एक अत्यन्त सादगीपूर्ण समारोह में हमें दीक्षा दी गई। हमने आचार्य महाराज के द्वारा दिलाई गई सभी प्रतिज्ञाएँ दुहराई। जीवन भर उनकी आज्ञा-पालन करने का नियम लिया। दीक्षा लेकर हम उनके पीछे-पीछे पर्वत पर स्थित पार्श्वनाथ जिनालय में पहुँचे। जैसे ही हमने उनके चरणों में माथा टेका, उन्होंने अत्यन्त हर्षित होकर हमें आशीष दिया और बड़े गम्भीर स्वरों में बोले कि-‘देखो, आज जिनेन्द्र भगवान् के दिगम्बर/निग्रन्थ-लिंग को तुमने अंगीकार किया है। अब इस जिनलिंग के साथ-साथ अपने अंतरंग परिणामों की सँभाल करना तुम्हारा परम कर्तव्य है। मैं तो निमित मात्र हूँ।” आचार्य महाराज का यह कर्तव्य-मुक्त व्यवहार देखकर हम क्षण भर को दंग रह गए। कर्तृत्वभाव से मुक्त होकर अपने कर्तव्य का पालन करना, यही अध्यात्म की कुंजी है। अध्यात्म पोथियों या परिभाषाओं तक सीमित नहीं है। आज भी आचार्य महाराज जैसे साधक अध्यात्म को अपने जीवन में प्रतिक्षण जीते हैं। नैनागिरि (१९८२)
  23. नैनागिरि में आचार्य महाराज के तीसरे चातुर्मास की स्थापना से पूर्व की बात है। सार संघ जल-मन्दिर में ठहरा हुआ था। वर्षा अभी शुरू नहीं हुई थी। गर्मी बहुत थी। एक दिन जल-मन्दिर के बाहर रात्रि के अन्तिम प्रहर में सामायिक के समय एक जहरीले कीड़े ने मुझे दंश लिया। बहुत वेदना हुई। सामायिक ठीक से नहीं कर सका। आचार्य महाराज समीप ही थे और शान्त भाव से सब देख रहे थे। जैसे-तैसे सुबह हुई। वेदना कम हो गई। हमने आचार्य महाराज के चरणों में निवेदन किया कि वेदना अधिक होने से समता भाव नहीं रह पाया, सामायिक ठीक नहीं हुई। उन्होंने अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक कहा कि ‘साधु को तो परीषह और उपसर्ग आने पर उसे शान्त भाव से सहना चाहिए, तभी तो कर्मनिर्जरा होगी। आवश्यकों में कमी करना भी ठीक नहीं है। समता रखना चाहिए। जाओ, रस परित्याग करना। यही प्रायश्चित है।” सभी को आश्चर्य हुआ कि पीड़ा के बावजूद भी इतने करुणावंत आचार्य महाराज ने प्रायश्चित दे दिया। वास्तव में, अपने शिष्य को परीषह-जय सिखाना, शिथिलाचार से दूर रहने की शिक्षा देना और आत्मानुशासित बनाना; यही आचार्य की सच्ची करुणा व सच्चा अनुग्रह है। नैनागिरि (१९८२)
  24. सागर से विहार करके आचार्य महाराज संघ-सहित नैनागिरि आ गए। वर्षाकाल निकट था, पर अभी बारिश आई नहीं थी। पानी के अभाव में गाँव के लोग दुखी थे। एक दिन सुबह-सुबह जैसे ही आचार्य महाराज शौच-क्रिया के लिए मन्दिर से बाहर आए, हमने देखा कि गाँव के सरपंच ने आकर अत्यन्त श्रद्धा के साथ उनके चरणों में अपना माथा रख दिया और विनत भाव से बुन्देलखण्डी भाषा में कहा कि-‘हजूर! आप खों चार मईना इतई रेने हैं और पानू ई साल अब लों नई बरसों, सो किरपा करो, पानू जरूर चानें है।” आचार्य महाराज ने मुस्कुराकर उसे आशीष दिया, आगे बढ़ गए। बात आई-गई हो गई, लेकिन उसी दिन शाम होते-होते आकाश में बादल छाने लगे। दूसरे दिन सुबह से बारिश होने लगी। पहली बारिश थी। तीन दिन लगातार पानी बरसता रहा। सब भीग गया। जल मन्दिर वाला तालाब भी खूब भर गया। चौथे दिन सरपंच ने फिर आकर आचार्य महाराज के चरणों में माथा टेक दिया और गद्गद् कंठ से बोला कि-‘हजूर! इतनो नोई कई ती, भोत हो गओ, खूब किरपा करी।” आचार्य महाराज ने सहज भाव से उसे आशीष दिया और अपने आत्मचिन्तन में लीन हो गए। मैं सोचता रहा कि, इसे मात्र संयोग मानूँ या आचार्य महाराज की अनुकम्पा का फल मानूँ। जो भी हुआ, वह मन को प्रभावित करता है। नैनागिरि (१९८२)
  25. शीतकाल में सारा संघ अतिशय क्षेत्र बीना-बारहा (देवरी) में साधनारत रहा। आचार्य महाराज के निर्देशानुसार सभी ने खुली दालान में रहकर मूलाचार व समयसार का एक साथ चिन्तन-मनन व अभ्यास किया। आत्म-साधना खूब हुई। जनवरी के अन्तिम सप्ताह में कोनी जी अतिशय क्षेत्र पर आना हुआ। कोनी जी पहुँचकर दो-तीन दिन ही हुए कि मुझे व्याधि ने घेर लिया। पीड़ा असह्य थी, पर वेदना के दौरान मेरे एकमात्र सहारे आचार्य महाराज थे, सो वेदना के क्षणों में उनकी ओर देखकर अपने को सँभाल लेता था। एक दिन दोपहर का समय था, वे मूलाचार का स्वाध्याय कराने जाने वाले थे। मेरी पीड़ा देखकर थोड़ा ठहर गए और बोले ‘तुमने समयसार पढ़ा है, उसे याद करो। आत्मा की शक्ति अनन्त है, इस बात को मत भूलो। देखो, व्याधि तो शरीराश्रित है, अपनी आत्मा में जाग्रत व स्वस्थ रहो। मूलाचार का स्वाध्याय करके हम अभी आते है | एक अकिंचन शिष्य के प्रति उनका इतना सहज और आत्मीयभाव देखकर मेरा मन भीग गया। आँखें भर आयीं। शिष्यों का अनुग्रह करने में कुशल ऐसे धर्माचार्य बारम्बार वंदनीय हैं। कोनी जी (१९८२)
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