चातुर्मास का समय था। इस बार अध्ययन, चिन्तन व मनन के साथ-साथ चार सल्लेखनाएँ निकट से देखने और अपने जीवन में उनसे शिक्षा लेने का अवसर भी सारे संघ को मिला। बड़ी सजगता और सावधानी का काम था। सल्लेखना, साधक की अन्तिम परीक्षा है। भावों की सँभाल करना और निर्मलता बनाए रखना आसान नहीं है। पूर्वोपार्जित पुण्य, वर्तमान-पुरुषार्थ एवं बाह्य योग्य संयोग सभी के ठीकठीक मिलने पर ही ऐसे कार्य सम्पन्न होते हैं।
सल्लेखना ग्रहण करने वाले एक साधक के मन में त्याग करने के बाद भी एक दिन आहार के समय सेवफल ग्रहण करने का भाव आ गया। आचार्य महाराज ने सारी बात समझकर निर्देश दे दिया कि, इच्छा हो तो दे दो। सेवफल दिया गया, पर शरीर की असक्तता के कारण थोड़ा-सा ही लिया गया, शेष नीचे गिर गया। साधक का मन इससे बड़ा व्यथित हुआ और आत्म-ग्लानि से भर गया।
उन्होंने आचार्य महाराज के पास पहुँचकर अत्यन्त विनम्रता से आलोचना की और जीवनपर्यन्त सभी चीजों का त्याग कर दिया। फिर अंत तक उनका मन शान्त व निर्मल बना रहा। उनकी अंतिम साँस महामंत्रोच्चार के साथ निकली। आचार्य महाराज की कृपा और कुशल निर्देशन से उनके भीतर सच्ची विरक्ति उत्पन्न हुई। वे पुन: अपने आप में स्थिर हो गए। आचार्य-महाराज के व्यक्तित्व में समाए श्रेष्ठ निर्यापकत्व गुण को देखकर हम सब श्रद्धावन्त हो गए।
नैनागिरि (१९८२)