जिनबिंब-प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव का आयोजन था। अपार जनसमूह के बीच पहली बार आचार्य महाराज ने आर्यिका-दीक्षाएँ दीं। एक ही मंच पर ग्यारह आर्यिका और बारह क्षुल्लक दीक्षाएँ सम्पन्न हुई। क्षेत्र की माटी का कण-कण उस दिन महाराज के चरणों में विनत हुआ। सन् १९७८ में इसी पावन-क्षेत्र पर हमने आचार्य महाराज को अपने चार पाँच शिष्यों के साथ आत्मसाधना में लीन रहते देखा था। आज आठ-नौ वर्षों बाद एक साथ छियालीस मुनि, आर्यिका, ऐलक व क्षुल्लक के विशाल परिकर के बीच उन्हें उतना ही निलिप्त व आत्मस्थ देखकर मन गदगद् हो उठा।
सुबह आचार्य-वंदना के समय अत्यन्त भाव-विहृल होकर हमने कहा कि ‘महाराज जी! आज हम सभी के लिए थोड़ा कुछ संदेश दीजिए।' उन्होंने क्षण भर हमारी ओर देखकर बड़ी आत्मीयता से कहा कि-‘तुम सभी पुण्यात्मा हो। पूर्व संचित पुण्य के फलस्वरूप एक साथ धर्म-मार्ग पर बढ़ रहे हो। मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन हमेशा बनाए रखना। जब प्रवृत्ति करो तो यह मानकर चलना कि हम सभी एक साथ हैं और मोक्षमार्गी हैं, सो परस्पर सहयोगी बनना, हमारा पहला कर्तव्य है। लेकिन सामायिक के समय सबसे निवृत्त होकर अपने को एकाकी ही मानना और अनुभव करना कि आत्मस्थ होना ही हमारा परम कर्तव्य है। यही हमारा तुम सबके लिए संक्षेप में संदेश है।' सभी ने सुना, मन अत्यन्त हर्षित हुआ। उस दिन लगा कि आचार्य महाराज ने जो स्वयं जिया, उसे ही हमें दिया।
नैनागिरि (१९८७)