आचार्य महाराज कभी किसी से आने-जाने या ठहरने के बावत् कोई चर्चा नहीं करते। एक बार महाराज से किसी ने कहा कि महाराज आप अपने पास आने-जाने वाले व्यक्ति से बैठने के लिए भी नहीं कहते। अच्छा नहीं लगता। इतना शिष्टाचार तो साधु के द्वारा होना चाहिए।
आचार्य महाराज ने सारी बात बड़े ध्यान से सुनी और मुस्कराकर बोले- ‘ भैया! यह स्थान मेरा तो है नहीं, जो यहाँ बैठने के लिए कहूँ। साथ ही आने-जाने की अनुमोदना भी मैं कैसे कर सकता हूँ, क्योंकि आने-जाने वाला तो वाहन का उपयोग करेगा, जिसका मैं त्याग कर चुका हूँ और मान लो, वह व्यक्ति मात्र दर्शन करके जाना चाहता हो तो मेरे कहने से उसे जबरदस्ती बैठना पड़ेगा।”
आचार्यों का उपदेश तो साधु के लिए केवल इतना ही है कि वे आने वाले व्यक्तियों को हाथ की अभय-मुद्रा से कल्याण का संकेत दे और मुख पर प्रसाद (प्रसन्नता) बिखेर दे। यही शिष्टाचार पर्याप्त है। यही साधु की विनय है। कितना अनासक्त और सुविचारित है उनका शिष्टाचार।