अहारजी सिद्ध क्षेत्र पर चातुर्मास के उपरान्त आचार्य महाराज संघ-सहित सिद्ध क्षेत्र नैनागिरि आ गए। शीतकाल यहीं बीत गया। एक दिन अचानक दोपहर में आचार्य महाराज ने बुलाया। मुनि श्री योगसागर जी भी आए। मैं भी पहुँचा। आचार्य महाराज बोले कि-‘‘ऐसा सोचा है कि तुम दो-तीन साधु मिलकर सागर की ओर विहार करो। वहाँ स्वास्थ्य लाभ भी हो जाएगा और धर्मप्रभावना भी होगी। तुम सभी को अब बाहर रहकर धीरे-धीरे सब बातें सीखनी हैं।"
संघ में पहली बार हम लोगों पर यह जिम्मेदारी आई थी, सो हम घबराए कि ऐसा तो कभी सोचा भी नहीं था। हम तो अपना जीवन आचार्य महाराज के चरणों में समर्पित करके निश्चित होकर आत्मकल्याण में लगे थे। कुछ समझ में नहीं आया। गुरु की आज्ञा अनुल्लंघनीय हुआ करती है, पर मन को कैसे समझाएँ? मन भर आया। हमने कहा कि-‘महाराज जी! आपसे दूर रहकर हम क्या करेंगे ? कैसे रह पाएँगे?”
आचार्य महाराज गम्भीर हो गए। बोले-"मन से दूर चले जाओगे क्या ?” हमने फौरन कहा कि-‘‘यह तो कभी संभव ही नहीं। स्वप्न में भी नहीं।” तब वे हँसने लगे। बोले कि-‘जाओ हमारा खूब आशीर्वाद है। घबराना नहीं। अध्यात्म में मन लगाना। मेरी आज्ञा में रहने वाला मुझसे दूर रहकर भी मेरे अत्यन्त समीप ही है और मेरी आज्ञा नहीं मानने वाला मेरे निकट रहकर भी मुझसे बहुत दूर है।”
आज भी हम उनसे दूर रहकर भी उन्हें अपने अत्यन्त समीप पाते हैं। कभी दूरी का अहसास नहीं होता। सचमुच, गुरु की आज्ञा में रहना ही सच्चा सामीप्य है।
नैनागिरि (१९८६)