ईसरी में वर्षायोग पूरा हुआ। आचार्य महाराज ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन कलकत्ता में प्रतिवर्ष होने वाले भगवान् पार्श्वनाथ के उत्सव में पहुँचने का मन बना लिया, लेकिन हमेशा के अपने अतिथि स्वभाव के अनुरूप किसी से बिना कुछ बताये कलकत्ता की ओर चल पड़े। लोगों में तरह-तरह की चर्चाएँ होने लगीं। मार्ग दुर्गम है। मार्ग में श्रावकों के घर नहीं हैं। बड़ा अशान्त क्षेत्र है। बंगाल के लोग पता नहीं कैसा व्यवहार करेंगे। महाराज को वहाँ नहीं जाना चाहिए।
कलकत्ता से श्रावक आए। निवेदन किया कि "बंगाल सुरक्षित प्रदेश नहीं है। आप वहाँ पधारें, ऐसी हम सभी की भावना तो है, लेकिन भय भी लगता है।” आचार्य महाराज हमेशा की तरह मुस्कराए, अभय-मुद्रा में हाथ उठाकर आशीष दिया और आगे बढ़ गए। यात्रा चलती रही। निरन्तर बढ़ते कदमों से गूंजता मंगल-गान, लोगों के मन को आगामी मंगल का आश्वासन देता रहा और देखते देखते साढ़े तीन सौ किलोमीटर की दूरी दस दिन में तय हो गई।
ग्यारहवें दिन जब अपने संघ के साथ आचार्य महाराज ने कलकत्ता में प्रवेश किया तब हजारों लोग उनके दृढ़ संकल्प के सामने सिर झुकाए खड़े थे। उस दिन वह महानगर, महाव्रती दिगम्बर जैन आचार्य की चरण-धूलि पाकर धन्य हो गया। बड़ा मन्दिर से बेलगछिया तक हजारों लोगों के बीच उनका सहज भाव से गुजरना आम आदमी के लिए अद्भुत घटना थी। देखने वालों ने उस दिन यही कहा कि बेशकीमती साजो-सामान, और विशाल शोभायात्रा के बीच अनेक श्रमणों में परिवेष्टित जैनों के एक महान्आचार्य के दर्शन करके हम धन्य हो गए। उस दिन रास्ते में खड़े लोगों और घरों की खुली खिड़कियों से झाँकती हजारों आँखों ने बालकवत् यथाजात निग्रन्थ श्रमण के पवित्र सौन्दर्य को देखकर और कुछ भी देखने से इंकार कर दिया। सचमुच, विद्या-रथ पर आरूढ़ होकर, ख्याति, पूजा, लाभ आदि समस्त मनोरथों को रोककर, जो श्रमण-भगवन्त विचरण करते हैं उनके दृढ़-संकल्प से धर्म-प्रभावना सहज ही होती रहती है।
कलकत्ता (१९८३)