धर्म-सभा का आयोजन था। आचार्य महाराज का प्रवचन होने वाला था। सहसा भीड़ में हलचल हुई और एक वृद्धा माँ मंच तक पहुँच गई। स्वयंसेवक दौड़े, उन्हें रोकना चाहा, पर इस बीच वह प्रणाम निवेदित करके अपने कुछ स्वर्ण-आभूषण उतारकर महाराज के चरणों में अर्पित करने लगीं। सभी अवाक् देखते रह गए।
मालूम पड़ा कि वह वृद्धा माँ, जन्मना जैन नहीं हैं पर कर्मणा जैन अवश्य है। उसने आज पहली बार आचार्य महाराज के दर्शन किए हैं और उनकी वीतरागता और त्याग, तपस्या से अभिभूत होकर अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया है। उस क्षण उसका भक्ति-भाव देखकर लगा कि धर्म सभी का है। जो सच्ची दृष्टि दे, सच्चा ज्ञान दे और सच्चा रास्ता बताए, वही सच्चा धर्म और सच्चा गुरु है।
मुक्तागिरि (१९९o)