सागर से विहार करके आचार्य महाराज संघ-सहित नैनागिरि आ गए। वर्षाकाल निकट था, पर अभी बारिश आई नहीं थी। पानी के अभाव में गाँव के लोग दुखी थे। एक दिन सुबह-सुबह जैसे ही आचार्य महाराज शौच-क्रिया के लिए मन्दिर से बाहर आए, हमने देखा कि गाँव के सरपंच ने आकर अत्यन्त श्रद्धा के साथ उनके चरणों में अपना माथा रख दिया और विनत भाव से बुन्देलखण्डी भाषा में कहा कि-‘हजूर! आप खों चार मईना इतई रेने हैं और पानू ई साल अब लों नई बरसों, सो किरपा करो, पानू जरूर चानें है।”
आचार्य महाराज ने मुस्कुराकर उसे आशीष दिया, आगे बढ़ गए। बात आई-गई हो गई, लेकिन उसी दिन शाम होते-होते आकाश में बादल छाने लगे। दूसरे दिन सुबह से बारिश होने लगी। पहली बारिश थी। तीन दिन लगातार पानी बरसता रहा। सब भीग गया। जल मन्दिर वाला तालाब भी खूब भर गया।
चौथे दिन सरपंच ने फिर आकर आचार्य महाराज के चरणों में माथा टेक दिया और गद्गद् कंठ से बोला कि-‘हजूर! इतनो नोई कई ती, भोत हो गओ, खूब किरपा करी।”
आचार्य महाराज ने सहज भाव से उसे आशीष दिया और अपने आत्मचिन्तन में लीन हो गए। मैं सोचता रहा कि, इसे मात्र संयोग मानूँ या आचार्य महाराज की अनुकम्पा का फल मानूँ। जो भी हुआ, वह मन को प्रभावित करता है।
नैनागिरि (१९८२)