कलकत्ता प्रवास के उपरान्त आचार्य महाराज संघ सहित तीर्थक्षेत्र उदयगिरि-खण्डगिरि पहुँचे। वहाँ कुछ दिन रुककर संबलपुर होकर रायपुर की ओर बढ़ते हुए रास्ते में एक स्थान ‘अनगुल' में रुकना हुआ। स्थान एकदम अपरिचित था। जैन समाज वहाँ नहीं था। अन्य लोगों ने भी कभी जैन साधुओं को नहीं देखा था, सो सहज उत्सुकता थी । आहार-चर्या के उपरान्त हाई स्कूल के प्रांगण में ही रुकने का मन था, पर बच्चों के शोर के कारण समीप ही एक धर्मशाला में सामायिक के लिए श्रावकों ने निवेदन किया। श्रावक इस बात से भी भयभीत थे कि कहीं बच्चे उपद्रव न करें। सामायिक के उपरान्त बहुत सारी भीड़ धर्मशाला के समीप इकट्ठी हो गई। जो श्रावक साथ में थे, वे घबराए कि कहीं कोई अप्रिय घटना न हो जाए। सो सभी ने आचार्य महाराज से निवेदन किया कि ऐसे समय में आप मंत्र आदि के माध्यम से स्थिति पर नियंत्रण करें। मैंने भी बिना सोचे-समझे इस बात का समर्थन कर दिया। श्रावकों से आचार्य महाराज ने कुछ नहीं कहा। हमारी ओर देखकर बोले कि-‘अध्यात्म को भूल गए? साधना तो समत्व की होनी चाहिए। साधु को नि:प्रतिकार होना चाहिए। आत्मा की अनन्त शक्ति को पहेचानो। वीतरागता के प्रभाव पर विश्वास रखो। चलो विहार करें।” और सहज, शान्त भाव से सीढ़ियाँ उतरने लगे। सारा संघ पीछे-पीछे हो गया। जैसे-जैसे आचार्य महाराज आगे बढ़ते जाते थे भीड़ एक ओर हटती जाती थी। यह देखकर सभी दंग रह गए। समत्व की साधना का अतिशय मेरे मन पर आज भी ज्यों का त्यों अंकित है और संबल देता रहता है।
अनगुल (१९८४)