चातुर्मास स्थापना का समय था। क्षुल्लक सुमतिसागर जी की मुनि बनने की बड़ी भावना थी। साधना भी थी, पर वृद्ध हो गए थे। आचार्य महाराज ने उनकी भावना के अनुरूप उन्हें मुनि-दीक्षा दे दी। अब वे मुनि वैराग्यसागर हो गए। दो-तीन माह तक उन्होंने महाव्रतों का बड़ी सावधानी से पालन किया, जीवन का अन्त निकट जानकर और वृद्धावस्था का विचार करके आचार्य महाराज से सल्लेखना ग्रहण कर ली।
मुनि की आहार-चर्या सर्वोत्कृष्ट है। स्वस्थ व अस्वस्थ हर दशा में समताभाव रखकर निर्दोष-विधिपूर्वक आहार ग्रहण करना आसान काम नहीं है। एक दिन विधिपूर्वक पड़गाहन के बाद जब वे जल ग्रहण करने के लिए खड़े हुए तो अंजुलि बाँधकर जल-ग्रहण करना मुश्किलसा लगा। जल नीचे गिर गया। आचार्य महाराज समीप ही खड़े थे। बोले- "चाहो तो गिलास ले लो।” हम सभी यह बात सुनकर चकित हुए, पर समझ गए कि परीक्षा की घड़ी है। सल्लेखना ग्रहण करने वाले क्षपक की परीक्षा प्रतिक्षण है। अत्यन्त वृद्ध होने के बाद भी एक सच्चे महाव्रती की तरह मुनि वैराग्यसागर जी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया और शान्त भाव से अन्न-जल का जीवनपर्यन्त के लिए त्याग करके यम सल्लेखना धारण कर ली।
आचार्य महाराज ने मुस्कराकर आशीर्वाद दिया और कहा कि सभी को इस परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिए और परीक्षा में उतीर्ण होने की तैयारी जीवन भर करते रहना चाहिए।
आहारजी (१९८५)