टड़ा ग्राम में गजरथ महोत्सव होना था। वहाँ के लोग आचार्य महाराज से निवेदन करने आए। महाराज जी ने हम तीन-चार साधुओं को बुलाकर वहाँ जाने का संकेत कर दिया। हमने उनके चरणों में माथा टेककर आज्ञा स्वीकार कर ली और जाना तय हो गया। विहार करने से पहले हम सभी को अपने समीप बुलाकर आचार्य महाराज ने समझाया कि सुनो - ‘छोटे-छोटे से गाँवों में होकर जाना है, दो-चार लोग भी आकर यदि निवेदन करें तो धर्म की दो बातें करुणाभाव से उन्हें सुनाना। धर्मोपदेश तो स्व-पर कल्याण के लिए है। कम लोग हैं, ऐसा सोचकर मना मत करना। दूसरी बात, वहाँ जो भी आगम के अनुकूल आत्मकल्याण में लगे हुए साधुजन आएँ, उन्हें यथायोग्य विनय करना और राग-द्वेष से बचना। तीसरी बात, भगवान् के दीक्षा-कल्याणक के समय अपनी तरफ से दीक्षा-संस्कार करने का आग्रह मत करना, भगवान् तो स्वयं दीक्षित होते हैं।' हम सभी ने तीनों बातें मार्ग में पाथेय की तरह अपनी स्मृति में बाँधकर रख लीं और महाराज जी का आशीर्वाद लेकर चल पड़े। रास्ते में वही हुआ। छोटे-छोटे गाँव मिले। सभी को धर्मोपदेश दिया, खूब आनन्द आया। मार्ग में दो साधु-संघों से मिलना हुआ, सभी से यथायोग्य विनय की। कहीं कोई मुश्किल नहीं आई।
दीक्षा-कल्याणक का दिन आया। सभी साधु-संघ एक ही मंच पर उपस्थित थे। उनमें एक मुनिराज हमसे दीक्षा में ज्येष्ठ थे। दीक्षाविधि उन्हीं के द्वारा सम्पन्न होना चाहिए, ऐसा हमारा सोचना था, पर अचानक मंच पर सभी ने हमसे दीक्षा-विधि सम्पन्न करने का आग्रह किया। सभी का आग्रह देखकर आचार्य महाराज की जय-जयकार के साथ हमने दीक्षा-विधि सम्पन्न की। सारा वातावरण पवित्र हो गया। हमारी आँखें भर आईं। सभी के पूछने पर जब हमने महाराज जी के द्वारा दी गई तीन शिक्षाएँ लोगों को बताई, तब सभी आचार्य महाराज की दूरदर्शिता की सराहना करके उनकी जय-जयकार करने लगे।
टड़ा (१९८९)