चातुर्मास में पयुर्षण-पर्व से पहले हम तीन साधुओं की मुनि-दीक्षा सम्पन्न हुई। एक अत्यन्त सादगीपूर्ण समारोह में हमें दीक्षा दी गई। हमने आचार्य महाराज के द्वारा दिलाई गई सभी प्रतिज्ञाएँ दुहराई। जीवन भर उनकी आज्ञा-पालन करने का नियम लिया। दीक्षा लेकर हम उनके पीछे-पीछे पर्वत पर स्थित पार्श्वनाथ जिनालय में पहुँचे। जैसे ही हमने उनके चरणों में माथा टेका, उन्होंने अत्यन्त हर्षित होकर हमें आशीष दिया और बड़े गम्भीर स्वरों में बोले कि-‘देखो, आज जिनेन्द्र भगवान् के दिगम्बर/निग्रन्थ-लिंग को तुमने अंगीकार किया है। अब इस जिनलिंग के साथ-साथ अपने अंतरंग परिणामों की सँभाल करना तुम्हारा परम कर्तव्य है। मैं तो निमित मात्र हूँ।”
आचार्य महाराज का यह कर्तव्य-मुक्त व्यवहार देखकर हम क्षण भर को दंग रह गए। कर्तृत्वभाव से मुक्त होकर अपने कर्तव्य का पालन करना, यही अध्यात्म की कुंजी है। अध्यात्म पोथियों या परिभाषाओं तक सीमित नहीं है। आज भी आचार्य महाराज जैसे साधक अध्यात्म को अपने जीवन में प्रतिक्षण जीते हैं।
नैनागिरि (१९८२)