मुनि दीक्षा के लगभग दो माह बाद ही मैं व्याधिग्रस्त हो गया। आहार में मुश्किल होने लगी। आहार लेते ही वमन हो जाता था। तब आचार्य महाराज स्वयं आहार-चर्या के समय उपस्थित रहते थे। दूर खड़े रहकर भी उनकी अनुकम्पा निरन्तर बरसती रहती थी। एक दिन आहार प्रारम्भ होते ही अंजुली में बाल का संदेह हुआ। सभी ने एक स्वर में कह दिया, बाल नहीं है। शायद अस्वस्थता देखकर लोगों ने झूठ बोला था। मैंने उन संवेदनशील निर्णायक क्षणों में जैसे ही समीप में खड़े आचार्य महाराज की ओर देखा तो वे तत्काल दूसरी ओर देखने लगे।
मुझे लगा, मानो वे कह रहे हों कि-‘तुम महाव्रती हो। एषणा समिति तुम्हारा मूलगुण है, निर्णय तुम स्वयं लो। अयाचक सिंह-वृत्ति रखो।' मुझे निर्णय क्या लेना था, बाल था, सो मैं अन्तराय मानकर बैठ गया। वे मुस्कराये और खूब आशीर्वाद देकर चले गए। पूरा दिन अस्वस्थता के बावजूद भी शान्ति से बीता। आत्मीयता के साथ-साथ आत्मानुशासन की शिक्षा देकर आचार्य महाराज ने हम पर असीम उपकार किया।
नैनागिरि (१९८२)