आचार्य महाराज की आज्ञा से हम ५-६ साधक सतना में चातुर्मास करके लौट रहे थे। आचार्य महाराज के दर्शन हमें लगभग डेढ़ वर्ष से नहीं हुए थे। मन में दर्शन की बड़ी आतुरता थी। जबलपुर के समीप पहुँचने पर मालूम हुआ कि महाराज जी, शीघ्र ही जबलपुर पहुँच रहे हैं। अत्यन्त हर्ष-विभोर होकर हम उन्हें लिवाने जबलपुर से बरगी की ओर चल पड़े। कुछ दूर चलने पर रास्ते में ही महाराजजी के दर्शन-वंदन का सौभाग्य मिल गया।
जब उनके साथ-साथ हम जबलपुर की ओर आ रहे थे तब रास्ते में हमने सतना के चातुर्मास की सफलता की चर्चा की और कहा कि जो भी बन पड़ा आपकी कृपा से हमने किया; सब अच्छे से हो गया। साधना, स्वास्थ्य और स्वाध्याय की अनुकूलता रही। आचार्य महाराज सब सुनते रहे और सुनकर हँसने लगे, बोले - "कृपा तो हम सभी पर आचार्य ज्ञानसागर महाराज की है। भगवान् महावीर के धर्म-तीर्थ की सेवा करना और अपने आत्म-हित के साथ-साथ सभी के हित की भावना रखना हमारा कर्तव्य है।” उनकी अपने गुरु के प्रति श्रद्धा, भक्ति और समर्पण उन क्षणों में देखते ही बनता था। इतने में जैसे ही अचानक उन्हें अन्य साधुओं के कहने पर याद आया कि आज के ही दिन बारह वर्ष पहले मेरी क्षुल्लक दीक्षा हुई थी, तो तुरन्त मेरा हाथ अपने हाथ में पकड़कर खूब हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि "चलो, अभी तो इस मोक्षमार्ग पर अपने को बहुत आगे बढ़ना है।”
उनका स्नेहस्पर्श पाकर और उनकी वाणी से झरते अमृतवचन सुनकर हृदय भर आया। आँखें आँसुओं से भीग गई। उन आत्मीय-क्षणों की स्मृति आज भी मुझे सहारा और प्रेरणा देती है।
जबलपुर (१o जनवरी, १९९२)