दुर्ग में लगभग अठारह दिन आचार्य महाराज संघ सहित ठहरे। एक दिन विहार होने वाला था। महाराज जी विहार से पहले दर्शन करने मन्दिर जी गए। लोगों को विहार का आभास हो गया। सभी लोग भागेभागे मन्दिर में आ गए। जैसे ही महाराज जी दर्शन करके सीढ़ियाँ उतरने लगे, सभी ने उनके पैर पकड़ लिए। कुछ लोग तो सीढ़ियों पर ही लेट गए कि हम गमन नहीं करने देंगे।
समय बीतता गया, आग्रह और भीड़ निरन्तर बढ़ती गई। एक वीतरागी के प्रति लोगों का अनुराग उस दिन देखते ही बनता था, पर आचार्य महाराज उस दिन विहार के लिए दृढ़-संकल्पित थे। सो रुकना संभव नहीं था। विलम्ब हो जाने के बाद भी विहार हुआ। लोगों ने उनका अनुगमन किया। बहुत दूर तक पीछे-पीछे गए। सभी के मन में था कि कुछ दिन महाराज और रुकते तो अच्छा रहता। पर साथ ही साथ यह भी अहसास हुआ कि मोक्षमार्ग पर दृढ़ संकल्पित होकर अविचल बढ़ते रहना, सदा नदी की तरह गतिशील रहना, यही सच्चे मोक्षार्थी की पहचान है।
दुर्ग (१९८४)