मुक्तागिरि का चातुर्मास सानंद सम्पन्न हुआ। आचार्य महाराज संघ सहित रामटेक (अतिशय क्षेत्र) होते हुए बालाघाट पहुँचे। सुबह संघ सहित शौच क्रिया के लिए जंगल की ओर गए। वहाँ वन-विभाग के ऑफीसर के बँगले पर दो शेर के बच्चे खेलते हुए मिले। सारा संघ क्षणभर की वहाँ ठहर गया। वन विभाग के ऑफीसर ने उन बच्चों के मिलने की जानकारी दी। आचार्य महाराज सारी बातें चुपचाप सुनते रहे, फिर सहसा बोले कि-‘‘हे वनराज! जैसे देश-काल की परिस्थितिवश आज तुम वन के स्थान पर भवन में रह रहे हो ऐसे ही वनों में निर्द्धन्द्ध विचरण करने वाले मुनिराजों ने नगर में रहना स्वीकार तो कर लिया है; पर यह हमारा स्वभाव नहीं है। हमें अपना यथाजात, एकाकी, निर्द्धन्द्ध विचरण करने का स्वभाव नहीं भूलना चाहिए।” उन क्षणों में आचार्य महाराज की निस्पृहता और स्वभाव की ओर रुचि देखते ही बनती थी। सभी लोग उनके द्वारा दी गई इस अध्यात्म की शिक्षा से अभिभूत हो गए।
बालाघाट (१९९१)