शीतकाल में सारा संघ अतिशय क्षेत्र बीना-बारहा (देवरी) में साधनारत रहा। आचार्य महाराज के निर्देशानुसार सभी ने खुली दालान में रहकर मूलाचार व समयसार का एक साथ चिन्तन-मनन व अभ्यास किया। आत्म-साधना खूब हुई। जनवरी के अन्तिम सप्ताह में कोनी जी अतिशय क्षेत्र पर आना हुआ।
कोनी जी पहुँचकर दो-तीन दिन ही हुए कि मुझे व्याधि ने घेर लिया। पीड़ा असह्य थी, पर वेदना के दौरान मेरे एकमात्र सहारे आचार्य महाराज थे, सो वेदना के क्षणों में उनकी ओर देखकर अपने को सँभाल लेता था। एक दिन दोपहर का समय था, वे मूलाचार का स्वाध्याय कराने जाने वाले थे। मेरी पीड़ा देखकर थोड़ा ठहर गए और बोले ‘तुमने समयसार पढ़ा है, उसे याद करो। आत्मा की शक्ति अनन्त है, इस बात को मत भूलो। देखो, व्याधि तो शरीराश्रित है, अपनी आत्मा में जाग्रत व स्वस्थ रहो। मूलाचार का स्वाध्याय करके हम अभी आते है |
एक अकिंचन शिष्य के प्रति उनका इतना सहज और आत्मीयभाव देखकर मेरा मन भीग गया। आँखें भर आयीं। शिष्यों का अनुग्रह करने में कुशल ऐसे धर्माचार्य बारम्बार वंदनीय हैं।
कोनी जी (१९८२)