ठंड के दिन थे। दिन ढलने से पहले आचार्य महाराज संघ-सहित बण्डा ग्राम पहुँचे। रात्रि-विश्राम के लिए मन्दिर के ऊपर एक कमरे में सारा संघ ठहरा। कमरे का छप्पर लगभग टूटा था। खिड़कियाँ भी खूब थीं और दरवाजा काँच के अभाव से खुला न खुला बराबर ही था। जैसे-जैसे रात अधिक हुई, ठंड़ भी बढ़ गई। सभी साधुओं के पास मात्र एक-एक चटाई थी। घास किसी ने ली नहीं थी। सारी रात बैठे-बैठे ही गुजर गई। सुबह हुई, आचार्य-वंदना के बाद आचार्य महाराज ने मुस्कराते हुए पूछा कि रात में ठंड ज्यादा थी, मन में क्या विचार आए बताओ ? हम सोच में पड़ गए कि क्या कहें, पर साहस करके तत्काल कहा कि‘महाराज जी ठंड बहुत थी, मन में विचार आ रहा था कि एक चटाई और होती तो ठीक रहता।” इतना सुनते ही उनके चेहरे पर हर्ष छा गया। बोले ‘देखो, त्याग का यही महत्व है। तुम सभी के मन में शीत से बचने के लिए त्यागी हुई वस्तुओं को ग्रहण करने का विचार भी नहीं आया। मुझे तुम सबसे यही आशा थी। हमेशा त्याग के प्रति सजग रहना। त्यागी गई वस्तु के ग्रहण का भाव मन में न आए, यह सावधानी रखना।' उनका यह उद्बोधन हमें जीवन भर सँभालता रहेगा।
बण्डा (१९८२)