सिवनी के बड़े मन्दिर में आचार्य महाराज विराजे थे। वयोवृद्ध पंडित सुमेरुचंद्र जी दिवाकर उनके दर्शन करने आए। तत्वचर्चा चलती रही। जाते समय पंडित जी बोले कि महाराज- "हमें तो आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ने एक बार मंत्र जपने के लिए माला दी थी, जो अभी तक हमारे पास है।” पंडित जी का आशय था कि आप भी हमें कुछ दें, पर आचार्य महाराज तत्काल बोले कि-‘‘पंडितजी! हमें तो हमारे आचार्य महाराज मालामाल कर गए हैं।" माला की लय में मालामाल सुनकर सभी हँसने लगे।
इस स्वस्थ मनोविनोद में अपने पूर्वाचार्यों के प्रति विनम्र-श्रद्धा, उनसे प्राप्त मोक्षमार्ग के प्रति गौरव और अपनी लघुता-ये सभी बातें छिपी थीं। साथ ही एक संदेश भी पंडितजी के लिए या शायद सभी के लिए था कि, चाहो तो महाव्रती होकर स्वयं भी मालामाल हो जाओ, अकेली माला कब तक जपते रहोगे ?
सिवनी (१९९१)