पानी में डूबने से सबके शरीर की स्वभाविक ऊष्मा कम होती जा रही है, रक्त का प्रवाह भी मन्द पड़ने लगा, हाथ-पैर क्रिया शून्य हो गये हैं, दाँत किटकिटाने लगे। नदी में कुछ और भीतर आना हुआ कि जल से ऊपर उछलती अनेक छोटी-बड़ी मछलियाँ आसपास खेल खेलने लगीं, परिवार की पिंडरियों से, विषधरों की पतली पूँछे लिपटने लगी। संकोच स्वभावी कछुवे भी परिवार की कोमल-मांसल जाँघों को छू-छूकर भागने लगे, सिंह के समान भयंकर जबड़ों में जिनकी टेढ़ी-मेढ़ी पैने दाँतों की पंक्तियाँ चमक रही हैं, जिनकी खून की प्यासी जिह्वा बार-बार बाहर निकल रही है और विष से युक्त, काँटों वाली पूँछे ऊपर उठी हैं, ऐसे माँस-भक्षी बड़े-बड़े मगरमच्छ भोजन की खोज में लीन परिवार के आस-पास सिर उठाते घूमने लगे।
अन्य क्रूर जलीय जन्तु भी भूख के कारण क्रोधित से आस-पास घूमते दिख रहे हैं, फिर भी परिवार की शान्त मुद्रा देख वे सभी क्रोध करना, वार (प्रहार) करना भूल-से गये हैं। भोजन का प्रयोजन दूर हुआ, आमूल-चूल परिवर्तन आया उनके आचरण में, जैसे भगवान् को देखते ही भक्त के मन में भजन-पूजन करने का भाव पैदा होने लगता है। हेय-उपादेय का बोध, क्षीर-नीर विवेक जागृत हुआ, कर्तव्य की ओर मुड़ गये वे सभी, इस प्रकार जलचरों के जीवन में अनेक परिवर्तन देखा गया।
जड़ यानि पुद्गल और जंगम यानि जीव ये दो तत्त्व हैं, दोनों की अपनी-अपनी विशेषतायें हैं-जीव को सही दिशा-बोध, सही निमित्त मिलते ही उसका विकास होने लगता है जबकि जड़ ज्यों का त्यों अज्ञानी, हठी, कूटस्थ बना रहता है, यहाँ ऐसा ही घटित हुआ। जलचर प्राणियों में परिवर्तन आया किन्तु जल में और अधिक उल्टी क्रान्ति आई जलचरों की परिवर्तित प्रकृति देख उफनती हुई नदी और अधिक जलती हुई कहती है कि मेरे आश्रित होकर भी, मुझसे प्रतिकूल प्रवृत्ति करते हो और निर्बल बालक के समान होकर भी माँ को भुला रहे हो निश्चित ही भविष्य में दुख पाओगे, पश्चात्ताप करना पड़ेगा तुम्हें। पृथ्वी पर चलने वाले भूचरों से मिल गये हो, उन्होंने तुम्हें छला इसीलिए तुमसे कुछ नहीं कहना उन्हें ही देखना है जो निश्छलों से छल करते हैं और जल-देवता से भी जला करते हैं और कुपित पित्त वाली बनी नदी क्रोधित हो परिवार के कोमल गालों पर अनगिन लहर रूपी हाथों से तमाचा मारना प्रारम्भ करती है।
और वह कहती है-धरती के आराधक धूर्तो बचकर कहाँ जाओगे अब, जाओ पाताल में चले जाओ, अपना मुख मत दिखाओ ग्रहण-संग्रहण रूप संग्रहणी रोग से ग्रसित हो धरती के समान एक स्थान पर रह कर,पर को और परधन को अपने आधीन किया है तुमने और मैं क्षण भर कहीं रुकती नहीं, पर सम्पदायें मिलने पर उनको मैंने स्वप्न में भी ना... ली यानि नहीं लिया और स्वार्थ वश या ख्याति की चाह के कारण उस सम्पदा को ना ही किसी को दी। तभी तो सन्तों ने हमें सार्थक संज्ञा दी है.... नाली..... नदी! और हमसे विपरीत चाल चलने वाले सदा न...... दी ...... दी........... दीन ही हुआ करते हैं। हमारे इस बहाव स्वभाव से कुछ शिथिलाचारी साधुओं को भी दिशाबोध मिलता है ‘बहता पानी और रमता जोगी', इस सूक्ति से। इस आदर्श में तुम भी अपना मुख देख लो और अपने रूप-स्वरूप को पहचान लो।
नदी की बातें सुन उत्तेचित हुए बिना सेठ कुछ कहता है-देवों ने तुम्हें जगह नहीं दी, इसीलिए तुम पर्वत की चोटी पर गिरी, सब हँसे तुम रोयी थी, उस समय सरला-तरला-सी लग रही थी, सो धरती माँ ने तुम्हें सहारा दिया वरना पाताल में चली जाती, फिर क्या दशा होती तुम्हारी जरा विचार करो। अरी कृतघ्ने' ! पाप सम्पादिके! और अधिक पाप मत कमाओ, संसार ऋणी है धरती माँ का तुम्हें भी ऋण चुकाना चाहिए, धरणी को हृदय में धारण कर अपनी करनी सुधारना चाहिए।
सेठ की बात सुन नदी के नेत्र खुले नहीं अपितु लाल-लाल खूनी और हो गये और फिर नदी कहती है, अरे दुष्टों मेरे लिए पाताल की बात करते हो, अब तुम्हारा अन्त दूर नहीं और जोरदार भंवर वाली तरंगें उठने लगी, जिसे देख सभी प्राणी अपने जीवन की सुरक्षा की चाह करने लगे, देखते ही देखते एक हाथी जिस पर सिंह बैठा था, भंवर में फँसकर एक-दो बार भ्रमता हुआ भंवर के उदर में डूब जाता है, यहाँ किसी की भी ताकत काम नहीं कर रही है।
1. स्वच्छन्दता - मनचाहा आचरण।
2. लवणभास्कर चूर्ण - भोजन को पचाने के काम में आने वाली एक औषध।