इस प्रकार सर्प समाज में से एक नाग-नागिन का युगल कहने लगा-हे श्रेष्ठ पुण्यशाली मानव, हमें सदा विषैले, हानिकारक, पर पीड़ादायक नाग, नागिन ही ना गिनों अर्थात् नहीं समझो। युगों-युगों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि हमारी वंश परम्परा ने आज तक किसी कारण वश किसी को भी पैरों से नहीं कुचला कारण कि पैरों से रहित जो रहे हम। इसी कारण सन्तों ने हमारा सार्थक नाम उर (छाती) से गमन करने वाले ‘उरग' रखा।
हाँ ! यदि हम पर कोई पैर रखे, हमें छेड़े तो फिर हम भी उसे छोड़ते नहीं। जघन्य स्वार्थसिद्धि के लिए हमने कभी किसी को पद दलित नहीं किया। बल्कि जो पद-दलित हैं, उन्हें प्रेम से पुचकारा है, उनके घावों को सहलाया है। काँटों को भी कभी काटा नहीं उन्हें सदा प्रेम भरा आलिंगन ही दिया है क्योंकि वे शोषित हैं। देखो डाल-डाल में भरे रस को चूसा फूलों ने, यश भी पाया फूलों ने, फल यह निकला कि सूख-सूख कर शेष काँटे ही बचे। एक बात और कहनी है कि -
"पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु
पर को पद-दलित करते हैं,
पाप-पाखण्ड करते हैं।
प्रभु से प्रार्थना है कि
अपद ही बने रहें हम!
जितने भी पद हैं
वह विपदाओं के आस्पद हैं,|" (पृ. 434)
पैर वाले ही तुच्छ पदों की आकांक्षा ले दूसरों को अपने पैरों के नीचे दबाते हैं, हिंसादि पाप-प्रपञ्च करते हैं सभी पद संकट के ही कारण बनते हैं, अतः प्रभु से यही प्रार्थना है कि हम बिना पद वाले अपद ही बने रहें, पद की चाह भविष्य में भी हमारे मन में पैदा न हो यही भावना है।
अपदों के मुख से पदों की, पद वालों की परिणति, रीति-नीति सुन कर परिवार कीलित-सा हुआ, चार पैर वाले हाथी भी परिस्पंदन से रहित यन्त्रवत् जड़ हुए, सबके पैर बर्फ के समान जम गए हों। परिवार सहित हाथियों के समूह को उदासी में डूबा देख सम्हलते हुए सर्पों ने कहा-क्षमा करें! क्षमा करें! क्षमा चाहते हैं हम, हमारा पूर्ण आशय प्रकट न हो सका, जितने भी पद वाले होते हैं, सभी ऐसे ही होते हैं ऐसा नहीं, कुछ पद ऐसे भी होते हैं, जिनकी पूजा के लिए जीवन तरसता है, हम भी तरस रहे थे बहुत काल से। सो आज खुशी की घड़ी आ ही गई और हर्ष के आँसूओं से भरी हुई आँखों से पूज्य पदों का अभिषेक-वन्दन हुआ फिर नाग-नागिनों ने फण-फैला मणियों का अर्पण किया धन्य! धन्यतम! माना सर्प समाज ने स्वयं को।
सर्पो ने नमन किया, सबका अहंकार दूर हुआ बाहर भले ही मारपीट का वातावरण-सा दिख रहा है। भीतर सबका एक-दूसरे के प्रति स्नेह का भाव चल रहा है और यहाँ एक मौलिक किन्तु अलौकिक सुनने योग्य काव्य की रचना हुई सो इसको रचने वाला कौन है? कहाँ है वह, क्यों मौन है वह? नम्र बुद्धि वाला, मानवों में श्रेष्ठ, अरिहन्तादिकों के आचरण को धारण करने वाला।