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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 62. क्षमता : गागर में सागर की

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    घटती इस घटना को देख कहीं परिवार का धैर्य कम न हो जाए उनका मन कहीं लक्ष्य से भटक न जाए, यूँ सोच कुम्भ ने नदी को ललकारा-यह परिवार तो किनारे पर ही है मझधार में नहीं क्योंकि

     

    "जिसने धरती की शरण ली है

    धरती पार उतारती है उसे

    यह धरती का नियम है........ व्रत!

    धरती शब्द का भी भाव

    विलोम रूप से यही निकलता है

    ध.......र ........ती ती......र .....ध "(पृ. 451)

     

    जिसने धरती का आश्रय लिया है, नियम से धरती उसे उस पार पहुँचाती ही है, किनारे पर धरती है और ध के स्थान पर थ करने से तीरथ बनता है सो शरणागत को भव से पार भी लगाती है।

     

    फिर भला तुम हमें कैसे डुबा सकोगी? अब हमें बहा न सकोगी तुम और किसी बहाने बहाव में हम भी न बहेंगे, जब आग की नदी को भी पार कर आये हैं हम और साधना से हारकर नहीं उसे स्वीकार कर, त्याग तपस्या अंगीकार कर आये हैं हम। क्या फिर भी तुम हमें डुबोने की क्षमता रखती हो, हमने पहले ही निर्णय किया सतह की ज्यादा सेवा प्रशंसा नहीं करना है और न ही लहरों के दर्शन मात्र से संतुष्ट होना है क्योंकि सतह पर तैरते-तैरते निश्चित ही हाथ भर आयेंगे और लहरों से ही संतुष्ट होने वाले प्रायः डूबते ही नजर आते हैं। भाव यह हुआ कि सांसारिक, इन्द्रिय सुख के लिए ज्यादा पुरुषार्थ नहीं करना, पुण्य से  मिलने वाली विषय-भोग की सामग्री में संतुष्ट, लीन नहीं होना है, कारण ये भोग ही भविष्य में भयंकर दुख के कारण हैं। इन बाहरी क्षणभंगुर इन्द्रिय सुख को ही सच्चा सुख मानकर जीने वाले चतुर्गति रूप संसार में भटकते हुए दुःख ही पाते हैं।

     

    अरे नीचे की ओर बहने वाली निम्नगे! इस गागर यानि कुम्भ में सागर को भी धारण करने की क्षमता है, धरती के अंश जो रहे हम। कुम्भ की अर्थ- क्रिया अर्थात् कार्य जल को धारण करना ही तो है और....... सुनो......

     

    "स्वयं धरणी शब्द ही

    विलोम-रूप से कह रहा है कि

    ध........र .......णी नी.......र......ध

    नीर को धारण करें .....सो.......धरणी

    नीर का पालन करे सो......धरणी!" ( पृ. 453)

     

    स्वयं धरणी शब्द पलट कर कह रहा है कि जो जल को धारण करे, उसका पालन करे सो धरणी है



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