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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. शंका - गुरुवर के चरणों में नमोऽस्तु! गुरुवर! सन् 2001 में कुण्डलपुर में यह हुआ था, सन् 1987 में द्रोणगिरि में यह गुरुवर! आप हमेशा बिना सोचे एकदम जैसे आपको याद हो कि इस सन् में यह हुआ उस सन् में यह हुआ यह कैसे ? यह विशेष कृपा आचार्यश्री ने सिर्फ आपको ही दी है क्या ? - श्री मनीष जैन, किशनगढ़ समाधान - (हंसते हुए) यह तो उन्हीं से जाकर पूछना पड़ेगा।
  2. शंका - महाराज जी ! नमोऽस्तु! मेरा प्रश्न यह है कि आचार्य श्री ने जितनी भी मुनिदीक्षाएँ दीं, क्या उन्होंने कभी उन मुनियों से कोई अपेक्षा की ? - सुश्री दिया जैन, किशनगढ़ समाधान - देखिए, मैंने तो देखा है कि उनको किसी से अपेक्षा नहीं, उन्हें खुद से अपेक्षा है। बल्कि जब भी वह किसी को मुनि दीक्षा देते हैं, हमेशा कहते हैं कि मैं तुम्हें जो कुछ भी दे सकता था, दे दिया, अब अपना रास्ता तुम्हें खुद बनाना है। वह हमसे कभी अपेक्षा नहीं रखते। वह सदैव निरपेक्ष भाव से रहे। एक घटना मुझे। याद आ रही है। जब कुण्डलपुर में पहली बार गुरुदेव ने आर्यिका दीक्षा दी, सन् 1987 की बात है, आर्यिका दीक्षा देने के बाद आर्यिकाओं का पृथक् विहार हुआ। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि मैं दीक्षा दे दूंगा पर संघ में नही रखूँगा। गुरुदेव ने कभी भी आर्यिका संघों को स्थायी रूप से संघ में नहीं रखा। आवागमन होता रहता है, अलग बात है। जब वह सब चले गए, थोड़ा खाली-खाली लग रहा था। हम लोग बैठे थे, मूलाचार के स्वाध्याय की तैयारी थी तो हमने ऐसे ही चर्चा में कहा कि गुरुदेव आज खालीपन-सा लग रहा है। गुरुदेव ने सुनते ही कहा- प्रमाण सागर जी! "णिग्गंध लिंगो णिरावेक्खो" आचार्य कुन्दकुन्द की एक गाथा को उद्धृत करते हुए कहा- "णिग्गंध लिंगो णिरावेक्खो" निर्ग्रन्थ लिंग निरपेक्ष होता है। इसमें उलझो मत, अपने जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश करो, अपना जीवन आगे होगा। आपने कहा कि उनकी कोई अपेक्षा ? मेरी दृष्टि में उनके अन्दर कोई अपेक्षा नहीं होती। केवल एक ही अपेक्षा होती है कि तुमने जिस मार्ग को अंगीकार किया है उसे अच्छे से सम्हालकर रखना और अपने जीवन में आगे बढ़ना, पीछे मत हटना।
  3. शंका - पूज्यश्री के चरणों में कोटि-कोटि नमोऽस्तु! मुनिश्री! मेरा प्रश्न यह है कि ऐसा सुनने में आता है, जब आचार्यश्री नैनागिरि में थे एवं कठिन साधना करते थे तो वहाँ पर उनके सामने कई बार जंगली प्राणी शेर आदि आ जाते थे। क्या यह सही है ? - ब्रह्मचारी सुनील भैया जी, तारंगा समाधान - देखिए, नैनागिरि में गुरुचरणों में 1985, 1986 और 1987 में शीतकाल में प्रवास हुआ, मतलब हमने आठ-दस महीने तीन प्रवासों में बिताए। घना जंगल था, अब तो जंगल साफ हो गया है। जब दीक्षा हुई तो हम लोग उन दिनों गुरुचरणों में ही लेटा करते थे। नैनागिरि के विषय में कहा जाता है कि उनके प्रवचनों के समय साँपों का जोड़ा आता था और हजारों लोगों ने देखा है। ऐसा भी कहते हैं कि गुरुदेव के पाटे के नीचे साँप बैठा रहता था। कभी। गुरुदेव से पूछा तो वह मुस्कुरा कर टाल दिए लेकिन जब हम लोग वहाँ अपनी चटाई लगा रहे थे (उन दिनों हम लोग पाटे पर नहीं लेटते थे, केवल चटाई बिछाते थे, पाटा संघ में नहीं था, जमीन पर चटाई बिछाते और उस पर लेटते) तो गुरुदेव ने कहा- छेद देखकर लगाना। मतलब समझ गए कि छेद से आवागमन होता है। नैनागिरि में क्षेत्र से बाहर लगभग डेढ़ किलोमीटर दूरी पर एक स्थल है सिद्धशिला, जिसके बगल में नदी बहती है। ऐसा मैंने वहाँ के लोगों से सुना कि गुरुदेव यहाँ ध्यान करने जाते थे। अष्टमी-चतुर्दशी आदि में उपवास करते थे और पूरा दिन वहाँ रहते थे। वहाँ शेर आ जाया करते थे। शेर आए या न आए, हम लोगों ने शौच जाते समय बड़े जानवर के पंजे के निशान जरूर देखे हैं। यदि वह आते हों तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। गुरुदेव ने अपने मुख से कभी नहीं बताया कि शेर आते थे या नहीं।
  4. शंका - परम पूज्यवर! नमोऽस्तु! महाराजश्री! आचार्यश्री के लिए कहा जाता है कि वह पहले सोचते नहीं हैं, लेकिन मेरी यह मान्यता है कि वह जरूर सोचते होंगे। यह बात जरूर है कि वह किसी को बताते नहीं हैं। महाराज जी मैं तो मैनेजमेण्ट का स्टूडेण्ट हूँ लेकिन इतने बड़े संघ का सञ्चालन करना, मेरी सोच से बाहर है। आप ही इसका समाधान करें। - श्री एन. एल. जैन, जयपुर समाधान - देखिए, बात सही है। आपकी सोच के बाहर क्या, सभी की सोच के बाहर है। क्योंकि इतने बड़े संघ का सञ्चालन बड़ा आचार्य ही कर सकता है। ये उनकी ही सोच की बात है। जहाँ तक सोच का सवाल है तो रविन्द्र जैन ने उनके बारे में एक गीत लिखा "कुछ भी नहीं है पूर्वनियोजित, निज इच्छा से करें विहार" विद्या के भण्डार, विद्या के भण्डार। सच में उनका कुछ भी पूर्वनियोजित नहीं होता। मैं अपने साथ की एक घटना आपको बताता हूँ। सन् 1993 में जबलपुर में गजरथ महोत्सव सम्पन्न हुआ। नन्दीश्वर द्वीप की पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा थी। इस महोत्सव की सम्पन्नता के उपरान्त एक दिन गुरुदेव ने मुझे बुलाया और मुझसे कहा कि देखो! ऐसा है, देवरी में पञ्चकल्याणक गजरथ होना है। तुम जाकर सम्पन्न करवा दो। मैंने कहा- मुझे अकेले थोड़े ही जाना है। उन्होंने कहा- ठीक है, समतासागर जी हैं, और निश्चयसागर जी को भी घुमा लाओ और ऐसा करना सागर भी चले जाना। मैंने कहा- महाराज जी! सागर का पञ्चकल्याणक तो हम लोग नहीं करवाएंगे। अभी हम उसका भूमिपूजन कराकर आए हैं। वहाँ तो आपकी प्रतीक्षा है, आप चलो और आप न चल सको तो कम से कम तीन चार संघ और भेजो। बोले ठीक है, तुम लोग जाओ मैं वहाँ के लिए देखता हूँ किसको भेजना है। बोले- आज ही विहार करना है। दिन में डेढ़ बजे चर्चा हुई और तीन बजे विहार हो गया। विहार करके हम लोग सहजपुर और सहजपुर से सुबह शाहपुरा भिटौनी पहुँचे। हमने सोचा था ढाई बजे यहाँ से विहार करेंगे इसलिए डेढ़ बजे से हमने प्रवचन का कार्यक्रम रखा था। एक बजकर सात मिनट पर मैसेज आता है कि आचार्य गुरुवर का शाहपुरा के लिए विहार हो गया है। हमने कहा सारा प्रोग्राम एक तरफ, पहले गुरुवर की अगवानी की तैयारी करो। गुरुदेव 24 किलोमीटर चलकर मढ़िया जी से सीधे शाहपुरा भिटौनी आ गए। हम लोगों ने अगवानी की, गुरुदेव विराजे, हमने कहा गुरुदेव अचानक ? बोले- मैंने सोचा कि चलो पञ्चकल्याणक में मैं ही चला जाता हूँ। अब आप बता दीजिए, उनका कार्यक्रम कैसा नियोजित होता होगा ? वह देवरी भी गए, सागर भी गए। वह कब क्या कर लें, कोई भरोसा नहीं। मैंने आचार्यश्री से एक बार पूछा- गुरुदेव आपके मन में इस तरह की प्लानिंग रहती होगी। उन्होंने कहा- ज्यादा योजना बनाने में आकुलता है। जिस समय मन जो बोले कर डालो और वह उसी हिसाब से चलते हैं। यही उनकी सफलता का मूल मन्त्र है।
  5. मुनि श्री सुधासागर जी ससंघ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली में विराजमान हैं
  6. साधर्मी जनो, सादर जय जिनेन्द्र, हम सभी के सौभाग्य से 1008 श्री मुनिसुव्रतनाथ भगवान के अतिशयकारी ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र पर परमपूज्य मुनिपुंगव 108 श्री सुधासागर जी महाराज ससंघ के आशीर्वाद के साथ भव्य कार्यक्रम प्रातः 6.30 बजे ब्र. प्रदीप भईया जी के निर्देशन में किए जा रहे हैं :- 1.दिनाँक 5/4/2018: नवनिर्मित धर्मशाला का भव्य उद्घाटन। 2. 22/4/2018 :असीम कालीन भक्तांबर विधान का शुभारंभ। 3. 25/4/2018: गौशाला में निर्मित होने वाले अस्पताल और शैड का शिलान्यास। 3.26/4/2018: नंदीश्वर मंदिर, पंचमेरु मंदिर का शिलान्यास। 4.27/4/2018 : गुफा मंदिर का शिलान्यास। 5. 29/4/2018: समोशरण मंदिर का शिलान्यास। 6. 30/4/2018: सुदर्शनमेरु मंदिर का शिलान्यास । 7. 2/5/2018: तीस चौबीसी मंदिर का शिलान्यास। अतः सभी पुण्यार्जकों व साधर्मी जनों से निवेदन है कि अधिक से अधिक संख्या में पधार कर धर्म लाभ लेवे और शुभ कार्यों में अपनी सहभागिता निभाएं । अजमेर शहर मे आनेजाने की सुविधा भी रहेगी। समय का ध्यान रखें, सभी कार्यक्रम प्रातः 6.30 बजे से प्रारंभ हो जाएंगे। अधिक जानकारी के लिए इन नंबरों पर संपर्क करें:- ◆ ब्रह्मचारी महावीर भैया 7021133107 ◆ ब्रह्मचारी सुकान्त भैया 9928091110
  7. शंका - महाराज जी! नमोऽस्तु! महाराज जी! जैसे आचार्यश्री बड़े-बड़े आयोजन, पञ्चकल्याणक, दीक्षा-समारोह आदि करवाते हैं, जिनसे धर्मप्रभावना भी होती है। जब आयोजन सफल हो जाते हैं। तो आचार्यश्री को कैसा लगता होगा, उनको कैसा महसूस होता होगा ? - श्री अभिषेक जैन, सतना समाधान - देखिए, यदि सामान्य रूप से देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति अगर सफलता पाता है तो उसके मन में प्रसन्नता होती ही है। इस तरह की आंशिक प्रसन्नता हमने गुरुदेव के मुख पर भी देखी और इस तरह की प्रतिक्रिया भी उनके मुख से सुनी, लेकिन आध्यात्मिक लोगों के जीवन में इस तरह की प्रतिक्रियाएँ बहुत कम होती हैं और वे उसको ज्यादा महत्त्व नहीं देते हैं। गुरुदेव के संदर्भ में एक घटना बताना चाहता हूँ, सन् 2001 में जब कुण्डलपुर का महामहोत्सव खूब धर्मप्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ, ऐसा आयोजन न तो भूत में हुआ न भविष्य में होगा। जैनियों का पहला और आखिरी आयोजन था। पूरे जैन समाज का जिसमें बीस लाख लोग सम्मिलित हुए। उम्मेदमल जी पाण्डेय वहाँ के कलश आवण्टन समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। उन्होंने भरी सभा में कहा मैं श्रवणबेलगोला में भी कलश आवण्टन समिति का अध्यक्ष रहा, बावनगजा की कलश आवण्टन समिति का भी अध्यक्ष रहा और महावीर जी के कलश आवण्टन समिति का भी अध्यक्ष रहा, पर जो व्यवस्था एवं जो जनता यहाँ उमड़ी, कहीं नहीं उमड़ी। यह उम्मेदमल जी पाण्डेय के शब्द थे। इतना बड़ा आयोजन, जिसमें बीस लाख लोग सम्मिलित हुए, 16 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ वह कार्यक्रम था। आयोजन सम्पन्न होने के बाद मैंने देखा गुरुदेव अपने कक्ष में बैठे हैं। हम लोग रोज आचार्य भक्ति के बाद गुरु चरणों में बैठते थे। उस दिन किसी कारण मैं कुछ विलम्ब से पहुँचा और देखा आचार्य महाराज अत्यन्त गम्भीर हैं और सब चुपचाप बैठे हैं। मैं पहुँचा, मैंने देखा मामला कुछ गड़बड़ है। आचार्य महाराज के मुख से एक ही बात निकल रही थी- "प्रशमाय वनान्तमाश्रिताः" यह शब्द रह-रहकर निकल रहे थे। अब मुझे तो हुलहुली पड़ी थी, मैंने चर्चा का वातावरण बदलने के लिए गुरुदेव से कहा- गुरुदेव आज हम लोगों से कुछ अपराध हो गया-सा लगता है। गुरुदेव बोले- क्यों क्या बात है ? मैंने बोला- रोज आधा घंटे का समय आपसे मिलता है, पता नहीं आगे कब आप हमें आज्ञा दे दो और हमें विदा कर दो। यही समय मिलता है और आज आप बिल्कुल शान्त बैठे हैं। हम लोगों को कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। उन्होंने जो शब्द कहे- वह उनकी आन्तरिक मन:स्थिति की अभिव्यक्ति है, उन्होंने बुझे मन से कहा- क्या बताऊँ ? "प्रशमाय वनान्तमाश्रिताः" प्रशम के लिए साधु वन में आते हैं, पर यहाँ वन में भी भीड़ है, अब मैं क्या करूँ ? आचार्य महाराज के विषय में मैं सिर्फ इतना कहूँगा कि भीड़ उनके पीछे भागती है और वह भीड़ से दूर भागते हैं। उनके मन में भीड़ नहीं। वह कहते हैं, कई बार कहते हैं कि धर्म की प्रभावना करना लेकिन उसका प्रभाव अपने मन पर मत पड़ने देना। वह बहुत ज्यादा प्रमुदित नहीं होते और बहुत जल्दी प्रभावित नहीं होते। यह उनकी जीवन की विशेषता है।
  8. शंका - महाराजश्री ! नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु! महाराजश्री ! आचार्यश्री का अपने शिष्यों को प्रायश्चित देने का क्या तरीका है, वह कठिन प्रायश्चित देते हैं या सरल ? अपना कोई अनुभव बताइए। - श्री प्रकाशचन्द्र जैन खेड़ीवाले, उदयपुर समाधान - देखिए, आचार्य महाराज, आचार्य हैं और प्रायश्चित में भी बहुत कुशल हैं। प्रायश्चित, शास्त्र के विधान अनुसार व्यक्ति के सत्त्व, व्यवस्था और दोष इन सभी को ध्यान में रखकर दिया जाता है। लेकिन प्रायश्चित के संदर्भ में मैंने दो बातें देखी। वह सदैव प्रायश्चित देते नहीं, हम उनसे प्रायश्चित लिया करते हैं। वे कहते हैं। प्रायश्चित देने की चीज नहीं, लेने की चीज है। अगर तुम्हारे हृदय में अपराधबोध ही नहीं तो प्रायश्चित लेकर क्या करोगे ? दण्ड दिया जाता है, प्रायश्चित लिया जाता है। वह कहते हैं अपने मुँह से अपना अपराध प्रकट करो, अपनी आलोचना करो और प्रायश्चित करो। किसी के लिए जब कभी कोई भी प्रायश्चित होता है तो प्रायश्चित देने में भी पूरी तरह से अपने हिसाब से किसी भी तरह की कटौती नहीं करते हैं। लेकिन कोई साधु कैसा भी अपराध करे, प्रायश्चित दे देने के बाद उनका दृष्टिकोण साधु के प्रति उतना ही स्नेह और उदारता युक्त होता है, हीन-दृष्टि से नहीं देखते। आपने कहा अपने जीवन में प्रायश्चित का कोई अनुभव बताइए। एक घटना जिसने मुझे भीतर तक प्रभावित किया। हमारी मुनिदीक्षा के बाद हम सभी नवदीक्षित मुनियों को एक सामूहिक नियम दिया। मुझे कहा तो मैंने कहा गुरुदेव यह नियम मेरे लिए कठिन है, फिर भी आपकी आज्ञा है तो मैं प्रयास करूंगा। नियम लिया नहीं था और गुरुदेव का मेरे लिए आग्रह भी नहीं था। पर हुआ यह कि किसी का नियम नहीं पला। मैंने स्वयं आगे आकर अपने साथियों से कहा कि गुरुदेव ने हमें एक छोटा-सा नियम निभाने के लिए कहा और हम लोग इस नियम को नहीं निभा पाए, हमारे लिए इससे बड़ी लज्जा की बात कोई और नहीं होगी। हमें गुरुचरणों में चलकर इसका प्रायश्चित लेना चाहिए और मैं खुद अपनी अगुवाई में अपने सभी साधु साथियों के साथ गुरुदेव के चरणों में गया व प्रायश्चित का निवेदन किया। गुरुदेव ने सभी को प्रायश्चित दे दिया। मुझे प्रायश्चित नहीं दिया मैंने कहा- गुरुदेव प्रायश्चित ? गुरुदेव ने कहा तुम्हारे लिए प्रायश्चित की जरूरत नहीं। बैठा रहा, वह अपना पढ़ने में लग गए, मुझे देखे ही नहीं। 10 मिनिट निकल गए मैं उठकर आ गया। दूसरे दिन फिर गया। गुरुदेव! प्रायश्चित ? कहा न, तुम्हारे लिए प्रायश्चित नहीं है और फिर से गुरुदेव अपने कार्य में लग गए, देखा ही नहीं नजर उठाकर। इन शब्दों ने मुझे भीतर तक हिला दिया। मेरे कान में यह शब्द कि तुम्हारे लिए प्रायश्चित नहीं। मेरे मन में यह आ गया कि क्या मैं इतना बड़ा अपराधी हो गया कि मैं प्रायश्चित के ही अयोग्य हो गया। सच्चाई यह है कि वह तीन दिन मेरे संक्लेश के दिन रहे। मेरा सामायिक में भी मन नहीं लगा मेरे मन की व्यथा मेरे चेहरे पर आसानी से देखी जा सकती थी। तीसरा दिन आया, आहार के उपरान्त जब हम लोग ईर्यापथ और प्रत्याख्यान करते हैं तो उसके बाद निकल रहा था, गुरुदेव ने इशारा किया और कहा दो उपवास कर लेना। मैं समझ गया, बिना नँ-नुकर के मैंने कायोत्सर्ग किया और उपवास का संकल्प लिया। समय पर दो उपवास पूर्ण किए, गुरु चरणों में गया और गुरुदेव से पूछा, गुरुदेव आपकी कृपा से मैंने उपवास तो पूरे कर लिए पर मुझे यह समझ नहीं आया कि आपने मुझे प्रायश्चित पहले क्यों नहीं दिया ? गुरुदेव ने जो बात कही थी वह बहुत समझने लायक है। उन्होंने कहा मैं यह देखना चाहता था कि प्रायश्चित नहीं देने का क्या परिणाम होता है ? मैंने उनके चरणों में अपना शीश रखा और मन ही मन अपने आप को सराहा कि चलो कम से कम मैं गुरु की परीक्षा के लायक तो हुआ और उसमें पास भी हुआ। यह उनका अपना तरीका है, वह सभी को अपने ढंग से मापते हैं।
  9. शंका - गुरुवर! नमोऽस्तु! गुरुदेव! आचार्यश्री का अन्य संघों के आचार्यों-मुनियों के साथ कैसा दृष्टिकोण रहता है ? प्रायः यह कहा जाता है कि वे मिलते नहीं हैं। आप स्पष्ट कीजिए। - श्री विकास जैन, मिर्जापुर समाधान - गुरुदेव हमेशा कहते हैं साधु का सत्कार करो। मुझे स्मरण है शायद कुंथुकुमार जी भी साथ में थे, तब मयंकसागर जी महाराज इधर से निकले थे। कुंथुकुमार जी आपने देखा कि कैसे संघ ने भव्यता से अगवानी की। जो साधु हैं, जो साधना करते हैं, हमारे संघ में उनका हृदय से स्वागत होता है। जो साधु के नाम पर आरम्भ परिग्रहों से जुड़े होते हैं, हमारा संघ उनसे सुरक्षित दूरी रखता है। जहाँ तक अन्य संघों एवं आचार्यों के साथ व्यवहार का सम्बन्ध है, मुझे याद है जब आर्यनन्दी जी महाराज आए थे, तो गुरुदेव ने स्वयं उनकी अगवानी की थी, संघ ही नहीं, वह खुद भी गए थे। इसके अलावा किसी अन्य महान् आचार्य या वरिष्ठ आचार्य के संघ में आगमन की कहानी तो मुझे याद नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि गुरुदेव नहीं मिलते तो मैं पूरी समाज से यह कहना चाहता हूँ कि वह नहीं मिलते तो यह मत कहो कि वह नहीं मिलते, यह सोचो कि क्यों नहीं मिलते? नहीं मिल रहे यानी कुछ है। जहाँ सब कुछ सही है वह हृदय से लगाते हैं। आचार्य धर्मसागर जी महाराज की जब समाधि हुई, वाचना चल रही थी, ललितपुर में संघ था, मैं उस समय उपस्थित था। 1987 की बात है, गुरुदेव ने पूरी वाचना बन्द करके श्रद्धांजलि सभा रखवाई। अजितसागर जी महाराज की जब समाधि हुई ललितपुर में, 1988 में वाचना चल रही थी, उनके लिए विनयांजलि प्रकट की गई। आचार्य कल्पसागर जी महाराज जब बारह वर्ष की सल्लेखना में निरत थे तब मुझे याद है कि आचार्य गुरुदेव ने मेरे सामने ब्रह्मचारी राकेश को कहा कि तुम मेरी तरफ से जाओ और महाराज से मेरी नमोऽस्तु कह कर आओ और उन्हें कहना कि मेरी तरफ से किसी भी प्रकार का कोई विकल्प नहीं रखें। यह आचार्य विद्यासागर का चरित्र है। वे लोग जिन्हें कुछ अता-पता नहीं, जो व्यर्थ में पन्थवाद को हवा देते हैं और समाज में जहर घोलते हैं, वही आचार्य विद्यासागर जी के नाम पर उल्टी-सीधी बातें बोलते हैं। आचार्य विद्यासागर का दृष्टिकोण समझना है तो किशनगढ़ के लोगों से पूछो जब किशनगढ़ की आदिनाथ पञ्चायत ने वहाँ पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित किया था और उस पञ्चकल्याणक के लिए गुरुदेव उपस्थित हुए थे। कुण्डलपुर स्वर्णिम यात्रा से विहार करके गए। पण्डित मूलचन्द जी लुहाड़िया की उसमें मुख्य केन्द्रीय भूमिका थी और आचार्य महाराज जब किशनगढ़ में प्रवेश किए तो पहले सीधे मुनिसुव्रत जिनालय में गए और वहाँ विराजमान आचार्यकल्प श्रुतसागर जी महाराज के संघ से मिले, फिर जाकर पञ्चकल्याणक स्थल पर पहुँचे। यह आचार्य विद्यासागर का दृष्टिकोण है। समाज को समझने की जरूरत है और आप जब तक इसे नहीं समझेंगे तब तक ऐसे महान् व्यक्तित्व को ठीक तरह से नहीं समझ पाएँगे।
  10. शंका - गुरुवर! नमोऽस्तु! गुरुवर! मेरा प्रश्न है क्या आपने कभी आचार्यश्री को असहज होते देखा है ? - श्री पीयूष जैन, जयपुर समाधान - देखिए, आचार्य महाराज बहुत ऊँचे साधक हैं। जो उच्च भूमिका में जीने वाले साधक होते हैं वह सहजता से असहज नहीं होते। मैंने उन्हें प्रायः सहज ही देखा है लेकिन मैंने एक बार उन्हें असहज होते देखा। वह एक गंभीर घटना है। घटना 1986 की है, गुरुदेव नैनागिरि में विराजमान थे। संघ में एक मुनिराज थे जो जन्मतः जैन नहीं थे, लेकिन बहुत अच्छी साधना करते थे। गुरुदेव ने उन्हें सीधी मुनिदीक्षा दे दी। बहुत अच्छे साधक, मैंने अपनी आँखों से देखा। रात-रात भर खड़े रहते थे, लेकिन कुछ लोगों के चक्कर में आकर वह शास्त्र की आज्ञा और गुरु की आज्ञा के विरुद्ध कुछ मन्त्रतन्त्र की क्रियाओं में संलिप्त हो गए। सन् 1983 से उनमें कुछ भटकाव शुरु हुआ था। गुरुदेव ने तीन वर्षों तक उनका पूरा स्थितीकरण करने स्वर्णिम यात्रा का प्रयास किया, लेकिन उनको चस्का लग गया था। गुरु से छुपाछुपाकर वही काम करते थे, जो गुरु नहीं चाहते। नैनागिरि की बात है, एक दिन गुरुदेव ने हारे मन से उनसे कहा कि तुम अब मुनि रहने लायक नहीं हो। जबकि कोई अनाचार उन्होंने नहीं किया था, केवल वे क्रियाएँ कीं, जिनका शास्त्र में निषेध है और जो गुरुदेव नहीं चाहते थे। मान्त्रिक क्रियाएँ बहुत करते थे और गुरुदेव ने बड़े भारी मन से उनकी पिच्छी वापस ली। उस दिन मैंने उनको पहली बार असहज होते देखा। उस घड़ी में पण्डित पन्नालाल साहित्याचार्य, दरबारी लाल कोठिया और जगन्मोहनलाल शास्त्री भी वहाँ उपस्थित थे। मैं उन दिनों क्षुल्लक अवस्था में था। उस दिन मैंने गुरुवर को पहली बार और शायद आखिरी बार असहज स्थिति में देखा। उन्होंने कहा- मुझसे चूक कहाँ हुई, मुझे यही समझ में नहीं आया। असहज कोई भी हो सकता है, वे इंसान है, वे भगवान के समान हैं पर अभी भगवान् नहीं हैं। लेकिन यह असहजता अल्पकालिक थी। मुश्किल से मिनिट दो मिनिट का खेल होगा, उसके बाद में बिल्कुल सामान्य हो गए।
  11. ममता मयी मां का ?प्रभावनामय ? ? मंगल ? ?विहार? ???????????? संत सिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की परम प्रभावक शिष्या पूज्य आर्यिकारत्न पूर्ण मति माता जी का मंगल विहार खिमलासा से खनियाधाना की ओर चल रहा है जिसमें जिनधर्म की अभूतपूर्व प्रभावना हो रही है। माताजी की प्रेरणा से निर्मित बसारी ग्राम में कीर्तिस्तंभ का लोकार्पण हुआ ततपश्चात पाली ग्राम वासियों ने भी आर्यिका संघ के सान्निध्य में वेदी प्रतिष्ठा एवं संयम कीर्ति स्तम्भ का शिलान्यास सम्पन्न किया। ललितपुर वासियों ने भी अद्भुत एवं भव्य आगवानी करके आर्यिका मां की ससंघ चरण सन्निधि में गोशाला प्रांगण में कीर्ति स्तम्भ का लोकार्पण करके मानस्तम्भ का शिलान्यास किया। आगे खनियाधाना वालों को पूज्य आर्यिकासंघ के सान्निध्य में महावीर जयंती मनाने का सौभाग्य प्राप्त होने की पूर्ण सम्भावना है। धन्य हैं वे जिन्हें ऐसी मां का सान्निध्य प्राप्त हो रहा है। ऐसी मां के श्री चरणों में मेरा बारम्बार नमन। ????????????
  12. सत् शिव सुन्दर 5 - निजता का पाठ विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/sagar-boond-samaye/sat-shiv-sundar-nijta-ka-paath/
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