सो तुरन्त परिवार ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा-नहीं नहीं अरे विनय-शील, परहित सम्पादिके' रस्सी! तुम्हारी कृपा का ही परिणाम है, जो हम पार हो गए, आज हमें-किसकी क्या योग्यता है? किसका कार्य क्षेत्र कहाँ तक है सही-सही ज्ञात हुआ?
"केवल उपादान कारण ही
कार्य का जनक है-
यह मान्यता दोष-पूर्ण लगी,
निमित्त की कृपा भी अनिवार्य है
हाँ ! हाँ !
उपादान-कारण ही
कार्य में ढलता है
यह अकाट्य नियम है|" (पृ. 481)
मात्र निज की योग्यता, उपादान शक्ति से ही कार्य सम्पन्न होता है निमित्त का उसमें कोई हाथ नहीं, ऐसी एकान्त धारणा' दोष पूर्ण अनुभूत हुई। किसी भी कार्य की पूर्णता में निमित्त का भी होना अति आवश्यक है समझ में आया। यह भी अकाट्य नियम है कि कार्य रूप में परिणत निमित्त नहीं उपादान ही होता है, सही कहें तो उपादान का सही मित्र तो निमित्त ही है, जो अपने मित्र को निरन्तर लक्ष्य तक साथ देता है और फिर रस्सी की ओर आदर की आँखों से देखता हुआ परिवार छने जल से कुम्भ को भर आगे बढ़ता है कि वही पुराना स्थान, जहाँ कुम्भकार माटी लेने आया है। परिवार सहित कुम्भ ने कुम्भकार का अभिवादन किया, स्मृति ताजी हो आई जैसे हवा का स्पर्श पाकर सरवर में तरंगें उठने लगती हैं।
1. कृतज्ञता - उपकारी के प्रति उपकार चुकाने का भाव।