नहीं....नहीं......नहीं.......अभी लौटना नहीं है, क्योंकि आतंकवाद अभी गया नहीं है। अभी उससे संघर्ष करना है वह अभी अपने संकल्प के प्रति दृढ़ है और ध्रुव पर अडिग। मैंने भी यह संकल्प किया है कि इस धरती पर वह रहेगा या मैं, किसी एक का ही अस्तित्त्व रहेगा। अब ये आँखें आतंकवाद को देख नहीं सकतीं और ये कान आतंकवाद का नाम सुन नहीं सकते, क्योंकि यह आतंकवाद जब तक जीवित रहेगा धरती में सुख-शान्ति का वातावरण बन नहीं सकेगा।
अतः अब देर न करो, शीघ्र ही नदी को पार करना ही है। क्या मेरे त्याग में कुछ कमी रह गई है क्या मुझे सफलता नहीं मिलेगी? भय आश्चर्य और संकोच मत करो, विश्वास रखो निश्चित ही हमारा संकल्प पूर्ण होगा। हमें विजय मिलेगी रस्सी का एक छोर मेरे गले में बाँध दो और कुछ-कुछ अन्तर छोड़कर परस्पर तुम सब अपनी कमर में कसकर रस्सी बाँध लो फिर ओंकार के उच्च उच्चारण के साथ नदी की धार में कूद जाओ। इतना सुनकर भी जब परिवार का संकोच दूर नहीं हुआ तब कुम्भ के मुख से निकली कुछ पंक्तियाँ–यहाँ बन्धन किसे अच्छा लगता है, मुझे भी स्वतन्त्रता प्रिय है, इसीलिए मैं किसी के बन्धन में बंधना नहीं चाहता और न ही किसी को बाँधना चाहता हूँ क्योंकि दूसरों को बाँधना भी तो स्वयं के लिए बन्धन है फिर भी…
"स्वच्छन्दता से स्वयं
बचना चाहता हूँ
बचता हूँ यथा शक्य
और
बचना चाहे हो, न हो
बचाना चाहता हूँ औरों को
बचाता हूँ यथा-शक्य।" (पृ. 443)
स्व और पर को स्वच्छन्दता से बचाने के लिए बन्धन आवश्यक है, इसीलिए बन्धन की बात कही वरना बन्धन रुचता किसे है?
कुम्भ की ये पंक्तियाँ परिवार के लिए लवणभास्कर चूर्ण-सी असरदार सिद्ध हुईं और कुम्भ के संकेतानुसार सेठ सिंह की कमर के समान पतली-सी अपनी कमर में रस्सी बाँध नदी की तेज धार में कूद पड़ा। परिवार ने भी उसका अनुकरण किया अब कमर में बँधी रस्सी ही सबकी रक्षक, सबके प्राण हैं, क्योंकि धरती का सहारा पूर्णतः छूट चुका है। सबके पैर निराधार हो गए हैं और कुम्भ महायान का काम कर रहा है, परिवार का पूरा शरीर जल में डूब चुका सबके मुख और मस्तक ही ऊपर दिख रहे हैं और परिवार को अत्यधिक ठंड का अनुभव हो रहा है इस समय।
1. संवेग - पाप से डरना एवं धर्म से प्रीति करना।
2. निर्वेग - संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य।