जैसे मणियों में नील-मणि, कमलों में नील-कमल, सुखों में शील-सुख, गिरियों में मेरुगिरि, सागरों में क्षीर-सागर, मरणों में वीर-मरण, मुक्ताओं में मत्स्य- मुक्ता उत्तम माने जाते हैं। उसी प्रकार अनेक गुणों में कृतज्ञता गुण उत्तम माना गया है। इसी गुण से सुशोभित कुम्भ को देख एक महामत्स्य ने प्रसन्नचित हो एक मुक्ता-मणि प्रदान किया कुम्भ को? और यह तुच्छ सेवा स्वीकृत हो कहता हुआ वह जल में लीन हो गया।
इस मुक्ता की यह बड़ी विशेषता है कि जिसके पास यह होती है, वह गहरे जल में भी बिना किसी बाधा के मार्ग पा जाता है और यहाँ भी यह घटित हुआ, आँवरदार धार को भी सहज ही परिवार सहित कुम्भ पार करता हुआ सेठजी से कहता है-‘बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख' और यह त्याग तपस्या का ही फल है। कुम्भ के आत्म-विश्वास और साहस पूर्ण जीवन से नदी को बड़ी प्रेरणा मिली उसकी व्यग्रता दूर हुई और उसके भीतर कुम्भ के प्रति समर्पण भाव जागा तथा वह नम्र हो विनीत भावों के साथ कुम्भ से कहने लगी-उद्दण्डता के लिए क्षमा चाहती हूँ। और वह निस्तरंग हो राग-रंग से मुक्त चिर-काल से दीक्षित, नीचे आँखें कर चलने वाली आर्यिका के समान चुपचाप गम्भीर हो बहने लगी। प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण परिश्रमी विद्यार्थी के समान कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है, यात्री समूह को लग रहा है कि गन्तव्य ही अपनी ओर आ रहा है, लगभग आधी यात्रा हो चुकी है और परिवार भी प्रसन्नता से फूला नहीं समा रहा है।