परिवार प्रसन्न है और उधर आतंक की पुनरावृत्ति प्रारम्भ हुई वही पुराना रंग-ढंग, चाल-ढाल, नशा-दशा आदि-आदि और वह आतंकवाद नदी से प्रार्थना के स्वर में कुछ पूछता है-ओ माँ जलदेवता, पुण्यात्मा-धर्मात्मा का पालन-पोषण उचित है और कर्तव्य भी है तुम्हारा। परन्तु क्या पापियों को भी प्यार करती हों तुम? अपराधियों को भी पार लगाती हों? यदि नहीं तो जो कुम्भ का सहारा ले पृथ्वी की प्रशंसा करते हैं, उस पार उतरना चाहते हैं, उन्हें डुबो दे इन्हें पुण्य-पाप (धर्म-अधर्म) से कोई मतलब नहीं इनका प्यार धन-वैभव-विषय भोग से ही रहता है। फिर भी यदि तुम इन्हें सहयोग दोगी तो तुम्हारे निर्मल इतिहास की हँसी होगी और विश्वास का पतन होगा फिर औरों की क्या बात सबके जीवन पर प्रश्नचिह्न ही लगेगा।
वैसे औरों को दुःख-ताप देने वाली स्वयं जलती और जो औरों को जलाती है ऐसी अग्नि को भी तुमने लकड़ी में कीलित किया है। फिर कभी -कभी उसे दावानल के रूप में लपलपाती, उत्पन्न होती देख अपने अजेय-बल से उसे लावा का रूप दे, पाताल तक पहुँचाया है और अभी भी उस पर तुम्हारा शासन चल रहा है। फिर पता नहीं आज तुम्हें क्या हो गया? कुछ बता दे माँ ! इस पर नदी कहती है, जैसे तलवार के अभाव में म्यान का क्या मूल्य, भोक्ता के अभाव में भोग सामग्री से क्या प्रयोजन? उसी प्रकार जिन्हें तुम डुबोने की बात कर रहे हो, उनके अभाव में यहाँ कुछ भी शेष नहीं बचेगा। जो कुछ आज धरती की शोभा दिख रही है वह इन जैसे सेवाभावी जनों से ही हैं, जड़ के अभाव में पेड़ की तथा मिट्टी के अभाव में फूल की क्या गति हो सकती है? तुम स्वयं विचार कर सकते हो, कहने की आवश्यकता नहीं। अब बल का दुरुपयोग नहीं होगा क्योंकि कुम्भ के प्रति समर्पण हो चुका है, शक्ति आराधना में परिवर्तित हो चुकी है, हृदय में परोपकार, दया का भाव जाग चुका है और बस! इतना ही कहती हुई नदी मौन धारण करती है।
परिवर्तित नदी की विचारधारा और गम्भीरता से आतंकवाद उदास नहीं हुआ अपितु कुछ क्षण शान्त रह पुनः लक्ष्य की ओर रोष के साथ सक्रिय होता है। और सही नीति भी यही है कि युद्ध के मैदान में कूदने के बाद मित्रों को याद नहीं किया जाता अपितु शत्रु पक्ष पर प्रहार करने हेतु टूट पड़ना ही होता है। क्योंकि-
"पराश्रय लेना दीनता का प्रतीक है
वीर-रस को क्षति पहुँचती है इससे,
इतना ही नहीं,
मित्रों से मिली मदद
यथार्थ में मदद होती है
जो विजय के पथ में बाधक
अन्धकार का कार्य करती है" (पृ. 460)
दूसरों के सहारे की अपेक्षा रखना ही कमजोरी का प्रतीक है और इस कार्य से स्वयं के स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है। इतना ही नहीं वास्तव में मित्रों से मिली सहायता उनमें मद, घमण्ड को ही पैदा करा देती है और यह घमण्ड ही सफलता के मार्ग में बाधक, अन्धकार का रूप ले लेता है