आज मैं सोचता हूँ कि,
आखिर मैंने आपको क्या समर्पित किया,
नश्वर वचन, क्षणभंगुर तन, चंचल मन।
बस... यही ना?
फिर भी,
सुदामा जैसी मेरी तुच्छ भेंट स्वीकार ली,
और बदले में दी,
अक्षय अविनाशी शाश्वत स्वात्मानुभव की रूचि।
धन्य हो दाता... धन्य हो !
“प्रेम पूर्ण अनुशासन जिनका, पक्षपात से दूर रहा।
जो करते हैं वह कहते हैं, यही गुरु का सूत्र रहा।।
कुछ ना लेकर सब कुछ देते, उदारतम जिनका उर है।
शिष्यगणों को भगवन् लगते, गुरुवर विद्यासागर हैं।।''
आर्यिका पूर्णमती माताजी