यह भी मेरा सौभाग्य ही है कि,
आपने मुझे स्वयं का प्रत्यक्ष दर्श न देकर,
निज कृत कर्मों को काटने का अवसर प्रदान किया।
दुनिया को देखने में ऐसा ही लगता है कि,
मेरा पाप कर्म का कैसा तीव्र उदय आया है।
लेकिन, सच कुछ और ही है।
तीव्र पाप कर्म तो वह है,
जो कर्मों को उदय में ही न आने दें।
बहुत समय तक सत्ता में रहने दें।
कभी समता धारण करने का अवसर ही न आने दे।
जिससे आत्मा अनादि होकर भी,
कर्मों के साथ रहने का आदि हो जाए।
परम कृपालु हैं आप...
जो निज दर्शन का समय दिया।
ज्ञान से परिपूर्ण विद्या का 'दीया' दिया।
“ शिष्यगणों के जन्म-मरण को, गुरु मिटाना चाह रहे।
यह विशिष्ट अनुकंपा उनकी, करुणा का ना पार रहे।।
परम गुरु की परम कृपा यह, निकट भव्य को मिलती है।
अल्प करे पुरुषार्थ तथापि, समकित कलियाँ खिलती हैं।।''