मैंने पूछा अनल से,
तुम कितने ईंधन से तृप्त हो जाओगे?
मैंने पूछा श्मशान से,
कितने शव का अग्नि संस्कार पा तृप्त हो जाओगे?
मैंने पूछा समन्दर से,
कितनी सरिताओं को अपने में मिला तृप्त हो जाओगे?
मैंने पूछा अपने मन से,
कितनी बार गुरु दर्शन कर तुम तृप्त हो जाओगे?
मन ने तपाक से जवाब दिया... कभी नहीं!
क्योंकि... उनका आहार, विहार और चर्चा ही कुछ ऐसी है कि,
उनसे नज़रें हटना चाहती ही नहीं कभी।
“अरिहंतों के विहार जैसा, गुरु का विहार होता है।
सरल सहज गुरूवर का प्रवचन, मन का विकार धोता है।।
आहार में श्रावक को लगता, मानो ऋद्धीधर आए।
प्रबल पुण्य के परमोदय से , पावन अवसर पाए।।”