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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. आज का युग ज्ञान-विज्ञान का युग है, इस युग में ज्ञान की पूजा अधिक हो रही है। चारित्र को गौण करते जा रहे हैं। लेकिन ज्ञान के साथ-साथ चारित्र की ओर भी कदम बढ़ाना चाहिए। जो ज्ञान अर्जित किया है उसे प्रयोग में भी लाना चाहिए क्योंकि असंयत ज्ञान कभी भी खतरा पैदा कर सकता है। पहले के युग में गुरु के सान्निध्य में रहकर ही शिक्षा ली जाती थी उन्हीं के सान्निध्य में ज्ञान आचरण का सर्वांगीण विकास होता है। गुरुकुल आदि की भी पहले यहाँ व्यवस्था भी थी। वहाँ ज्ञान के साथ-साथ सदाचार की भी शिक्षा मिलती थी। यह प्रसंग आचार्य गुरुदेव के श्री मुख से सुना था उस समय अमरकंटक सर्वोदय तीर्थक्षेत्र पर श्रावकाचार ग्रंथ की वाचना चल रही थी। ज्ञान और आचरण का व्याख्यान करते हुए आचार्य महाराज ने बताया कि- मुझे आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज रोज पाँच सूत्र पढ़ाते थे और याद करने को बोलते थे। जब हम याद करके आते थे तब फिर पुनः पाँच सूत्र पढ़ाते थे। जितना पचता था उतना ही देते (पढ़ाते) थे। ज्ञान को वे आज की तरह सर्वांगीण महत्व नहीं देते थे। आचार्य भगवन् का यह उपदेश है कि हम सभी साधकों को मात्र ज्ञान को ही सब कुछ मान कर नहीं चलना चाहिए बल्कि, आचरण की दिशा में भी आगे उत्तरोत्तर वृद्धि करना चाहिए। ज्ञान हि भव का कूल है, ज्ञान हि भव का मूल। राग रहित अनुकूल है, राग सहित प्रतिकूल॥
  2. उस समय सारा संघ नेमावर में साधनारत् था। गर्मी का समय था, रात्रि में 12 बजे तक गरम हवा चलती थी। रात्रि में नींद नहीं ले पाते थे। कुछ महाराजों ने आचार्य महाराज से निवेदन किया कि- हम लोग नदी में जाकर रेत में रात्रि विश्राम करने के लिए चले जाया करेंगे। तब आचार्य महाराज ने कहा ठीक है, जाओं नदी में रेत भी है और वहाँ श्मशान भी है, दो चार महाराज हो जाओं ठीक रहेगा। कुछ सोचकर बोले - अगर रात्रि विश्राम के लिए वहाँ जा रहे हो तो मेरा आशीर्वाद नहीं है बल्कि साधना करने जा रहे हो तो मेरा आशीर्वाद है। आचार्य महाराज स्वयं पहले राजस्थान में केकड़ी गाँव आदि में नदी की रेत में ही रात्रि में साधना किया करते थे। वही हम सभी को उपदेश भी देते हैं कि- आतमराम को भजो, विश्राम आराम को तजो, विश्राम करना ही है तो आत्मा में विश्राम करो। ध्यान रखो शरीर को सुविधा मत दो। इतनी गर्मी पड़ रही है फिर कुछ नहीं। एक बार द्वितीय शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि जल जावे जो काम हो जावेगा। जब तक यह अग्नि नहीं जलती तब तक इस शरीर की गर्मी (यात्रा) समाप्त नहीं होगी। इस शरीर को क्या इसे तो इक दिन जलना ही है लायक बन नायक नहीं, पाना है विश्राम। ज्ञायक बन गायक नहीं, पाना है शिवधाम।।
  3. संसार में प्रत्येक प्राणी सुख-शांति चाहता है और दुःख क्लेश से बचना चाहता है। चाहे वह चींटी से लेकर विशालकाय हाथी ही क्यों न हो सुख-शांति सभी को प्रिय है। लेकिन, वह उस प्रिय वस्तु शांति से बहुत दूर है। वह दुनियां के पर-पदार्थों में शांति की खोज कर रहा है, जबकि बाह्य पदार्थों से कभी भी सुख-शांति नहीं मिल सकती। आकुलता, अशांति और बढ़ती चली जाती है। बाह्य सुविधायें दुविधा का ही कारण बन जाती हैं। अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी में चातुर्मास के अंतर्गत एक दिन किसी सज्जन ने आचार्य श्री से निवेदन किया कि -हे गुरुदेव ! हम लोगों को आप कृपा कर शांति का मार्ग बतला दीजिए। आचार्य श्री जी ने कहा - परिग्रह त्याग के बिना शांति का मार्ग नहीं मिल सकता। परिग्रह और मन की शांति दोनों एक साथ नहीं रह सकते। इन दोनों में आपस में चूहे और बिल्ली जैसा जात्य बैर है। यदि जीवन में शांति चाहते हो तो कषाय को जीतो, परिग्रह का त्याग करो। जब चूल्हे के नीचे की आग बुझ जाती है, हट जाती है तो ऊपर रखे भगोनी के पानी का उबलना अपने आप बंद हो जाता है। वैसे ही परिग्रह, कषाय का त्याग करने के बाद मन शांति का अनुभव करने लगता है, पूर्व संस्कार होने से थोड़ा-सा मन अशांत भी रह सकता है यह बात अलग है। अंत में आचार्य श्री ने मुस्कुराते हुये कहा जिनवाणी की वीणा बजाओं और बारह भावना भाओ-बीना वालों। बीना बारहा में रहने का यही उद्देश्य है। फिर मन को अवश्य ही शांति मिलेगी।
  4. भोपाल में पंचकल्याणक गजरथ महोत्सव सानंद नहीं बल्कि निर्विघ्न सानंद सम्पन्न हो गया। क्योंकि जिस कार्य में गुरु का आशीर्वाद हो और उन्हीं का साक्षात् सान्निध्य प्राप्त हो उस कार्य की सफलता में संदेह करना व्यर्थ ही है। वहाँ संदेह को स्थान ही नहीं मिल सकता। पंचकल्याणक के उपरान्त सागर की ओर विहार हो गया रास्ते में ही सामाजिक बातें चल रही थीं। समाज की दशा आज बड़ी चिन्तनीय होती चली जा रही है। कुछ लोग समाज में पूर्ण समर्पित होकर कार्य करते हैं लेकिन वे आगे नहीं आ पाते। क्योंकि, बहुमत का अभाव होता है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वे मन से आगे नहीं हैं क्योंकि नि:स्वार्थ भावना ही उनका महत्व बढ़ा देती है दुनियांन भी समझे तो भी उस भावना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सामने ही नहीं आते बल्कि अपना कार्य तन-मन-धन से समर्पित होकर करते रहते हैं। और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो मात्र मंच-माला-माईक के समय ही दिखते हैं। कुछ कार्य आते ही पीछे हट जाते हैं सहयोग के नाम पर शून्यता दर्शाते हैं। उन्हें तो मात्र स्वार्थ के तवे पर अपनी रोटियाँ सेंकना ही आता है। समाज का कुछ भी अच्छा-बुरा होता रहे इससे उन्हें क्या लेना-देना। यह सुनकर आचार्य महाराज ने हँसकर कहा कि-ऐसे मंच-माला-माईक वाले लोगों को पहचानना जरूरी है वरना वे अपने ही गले में माला डाल दें तो क्या ........? आचार्य महाराज का अभिप्राय सभी लोग समझ गए और हँसने लगे। गुरुदेव उज्ज्वल विनोद के धनी हैं ही उनकी विनोदपूर्ण शैली में दी गई शिक्षा उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत देती है।
  5. बड़े महाराज की बातों में बड़ा यानि महान राज रहता है, बहुत बड़ा रहस्य छुपा होता है। उनकी वाणी से सूत्र वाक्य निकलते हैं। यदि उनका अर्थ लगाया जाए तो बहुत बड़ा उपदेश उस सूत्र वाक्य के माध्यम से प्राप्त हो जाता है जो बिखरे जीवन को एक नया आयाम दे सकता है। इस जीवन को सत्य की सुगंध से सुभासित कर सकता है। संसार के वास्तविक स्वरूप का बोध प्रदान कर सकता है। सर्दी का मौसम था, ठण्ड बहुत पड़ रही थी इस कारण से सभी लोग धूप में ही बैठे हुए थे। लेकिन आचार्य महाराज वहीं छाँव में विराजमान थे। सभी लोगों ने गुरुदेव से भी आग्रह किया कि-हे गुरुदेव ! आप भी, धूप में ही ये पाटा रखा है इस पर विराजमान हो जाईये। यह सुनकर आचार्य महाराज हँसकर बोले कि- पहले आप लोग हमसे छाया मांगते हैं, कहते हो- आप हमें अपनी छत्र छाँव में रख लो। फिर, धूप में जाने की बात करने लगते हो ....। इस विनोदपूर्ण किन्तु शिक्षाप्रद बात का अभिप्राय समझ कर सभी लोग हँसने लगे........। एक दिन चर्चा के दौरान आचार्य महाराज जी ने बताया कि इतनी गर्मी पड़ रही है, फिर भी कुछ नहीं एक बार द्वितीय शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि जल जावे तो शांति आ जावेगी, जब तक यह शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि नहीं जलती तब तक इस शरीर की गर्मी (यात्रा) समाप्त नहीं होगी। इस शरीर का क्या इसे तो एक दिन जलना ही है। फूल फलों से ज्यों लदे, घनी छाँव के वृक्ष। शरणागत को शरण दे, श्रमणों के अध्यक्ष॥
  6. रक्षाबंधन पर्व, वात्सल्य दिवस भारतीय संस्कृति में महान धार्मिक पर्व माना जाता है। इस दिन धर्म तीर्थ एवं धर्मात्माओं की रक्षा का संकल्प लिया जाता है। साधर्मी भाई-बहनें इस दिन इक-दूजे की कलाई में रक्षा सूत्र (राखी) बांधा करते हैं। इस दिन वात्सल्य भाव से मीठा आदि खिलाकर एक-दूसरे का मुँह मीठा करवाते हैं। भाई, बहनों को उपहार स्वरूप कुछ वस्त्र या बेशकीमती वस्तुएँ प्रदान करते हैं। ब्र. विद्याधर जी बचपन में अपनी बहनों के लिए सावन के त्यौहार पर वस्त्र, खिलौने न देकर सचित्र ग्रंथ लाकर देते थे ताकि वे भी धर्म का ज्ञान कर सकें। यह गुरुदेव की देव-शास्त्र-गुरु के प्रति बचपन से ही दृढ़ आस्था थी एवं स्वाध्याय के प्रति रुझान देखते ही बनता था। शास्त्र देते समय जैसे वे संदेश दे रहे हों कि धर्म, संस्कृति की रक्षा करना चाहते हो तो शास्त्रों का स्वाध्याय करो और शास्त्र के अनुरूप अपने जीवन को ढालने का प्रयास करो। सच्चे भाई-बंधु तो वही हैं जो हमें मोक्षमार्ग पर लगा दें, कल्याण का रास्ता प्रशस्त कर दें। वे भाई-बंधु हितैषी नहीं हो सकते जो हमें संसार के गर्त में ढकेल दें। गुरुदेव के बचपन के इस प्रसंग से सभी पाठक गणों को भी यही शिक्षा ले लेनी चाहिए कि इस महान पर्व रक्षाबंधन पर हम भी अपने साधर्मी भाई-बहनों को ऐसा ही कुछ उपहार दें, ताकि उनका भी कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो सके उस मार्ग पर बढ़ सकें।
  7. प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक निजी कर्तव्य होता है घर परिवार में रहता है तो भी वह अपना कर्तव्य पालन करता है। समाज राष्ट्र के क्षेत्र में भी उसका एक कर्तव्य होता है। कर्त्तव्य का अर्थ है- हम जिस भूमिका में हैं उस भूमिका में करने योग्य कार्य। श्रावक का भी अपना कर्त्तव्य होता है और साधुओं के भी अपने कर्तव्य होते हैं। कर्त्तव्य के अभाव में जीवन शोभा को प्राप्त नहीं होता, कर्तव्य का पालन निष्ठा और उत्साह के साथ करना चाहिए। एक दिन आचार्य श्री ने कहा कि - आज इस कलिकाल में चारों ओर तूफान ही तूफान है, कर्तव्य के प्रति निष्ठावान व्यक्ति बहुत कम मिलते हैं। जैसे मणियों में कांतिमान मणियाँ दुर्लभ होती हैं वैसे ही अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा बहुत कम साधकों में होती है। पहले पशुओं में भी कर्तव्य के प्रति निष्ठा देखने को मिलती थी। ऐसे भी घोड़े होते थे कि युद्ध में अपने मालिक के घायल होने पर भी वे युद्धस्थल से लेकर भाग जाते थे और घर के दरवाजे पर हिन-हिनाने लगते थे यह सुनकर बंधुजन तत्काल आकर उस मालिक का उपचार करते थे। अपने कर्तव्य के प्रति ऐसी निष्ठा तिर्यंच भी रखा करते थे। आज इस ओर हम सभी का ध्यान जाना चाहिए और कर्तव्य को कर्तव्य समझकर निष्ठा के साथ उसका पालन करना चाहिए। आचार्य भगवन् स्वयंनिष्ठा के साथ अपने कर्तव्य का पालन करते हैं और हम सभी लोगों को भी निष्ठा और ईमानदारी के साथ कर्तव्य पालन का उपदेश भी देते हैं। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ गुरु के चरणों में श्रद्धा के साथ मस्तक झुक जाया करता है। प्रदर्शन का त्याग कर कर्तव्य की ओर बढ़ने वाले साधक दुर्लभ ही होते हैं। कर्त्तव्य को जिसने जीवन में उतार लिया वह किसी भी पर्याय में हो उसकी सदगति की यात्रा प्रारंभ हो जाती है। भटकन की बात समाप्त हो जाती है। कर्तव्यनिष्ठ हमेशा धर्म कर रहा है भले ही वह कहीं भी हो।
  8. पाप से बचने के लिए दशों दिशाओं में आवागमन की सीमा बांध ली जाती है। जिसे दिग्व्रत कहते हैं। दिग्व्रत के माध्यम से निष्प्रयोजन पाप से बच जाते हैं। दिशाओं की सीमा बांध लेने पर उसके आगे या बाहर के पाप से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाते हैं। अपने उपयोग को सीमित रखने का रास्ता द्रव्य-क्षेत्र-काल की अपेक्षा से सीमित हो जाना है। आज व्यक्ति सीमा बांधने की बात ही नहीं करता बल्कि सात समुंदर पार जाने की बात कर रहा है लेकिन कबहुँ न सुख संसार में, सब जग देखो छान इस बात को भूल जाता है। आचार्य श्री जी ने बताया कि- आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सामने चर्चा के दौरान दिग्व्रत की बात चली। तब ज्ञानसागर जी महाराज ने बताया कि -पण्डित सदासुखदास जी से सेठजी ने कहा - पण्डितजी, आप आ जाना। उन्होंने पूँछा क्यों ? सेठजी बोले-शिखरजी चलना है। पण्डितजी ने कहा-हम नहीं जायेंगे। क्योंकि, हमने शिखरजी की वंदना कर ली है और जिस क्षेत्र की हम वंदना कर लेते हैं वहाँ न जाने का संकल्प कर लेते हैं। सीमा से बंध जाते हैं। वे वास्तव में सदासुख ही थे। वे जल ते भिन्न कमल जैसे ही रहते थे। हमेशा रत्नत्रय प्राप्ति की भावना रखते थे लेकिन उस समय साधुओं का सद्भाव नहीं था इसलिए रत्नत्रय धारण नहीं कर पाये। मोह को काटने का अमोघ शस्त्र है 'संकल्प'। संकल्प ले लेने से पाप के विकल्प भी कम हो जाते हैं और संकल्प से पूर्व बंधे हुये कर्म भी निर्जरित होने लगते हैं। विकल्प को छोड़ने की साधना ही मोक्ष मार्ग की साधना है। विकल्प संसार जाल में फंसाने वाले हैं। विकल्पों से बचने वाला संसार जाल में फंसने से बच जाता है। इस प्रसंग से यह शिक्षा मिलती है कि-श्रावकों को कम से कम आवागमन करना चाहिए। सभी दिशाओं में जाने की सीमा बांध लेना चाहिए तभी वह पाप से बच सकता है। कल्याण का रास्ता प्रशस्त कर सकता है।
  9. ईर्यापथ भक्ति के उपरान्त आचार्य श्री जी ने प्रसंगानुसार कहा कि- मुनि महाराज को कमरे का दरवाजा खोलना और बंद करना विधेय नहीं है, कथंचित् क्षम्य हो सकता है। सामायिक के बाद उसी दिन विहार हो गया रास्ते में जिस गाँव में रात्रि विश्राम हुआ वहाँ नये कमरे थे जिनमें दरवाजे नहीं लगे थे। इस पर आचार्य श्री जी से कहा कि- आज ही दरवाजे का प्रसंग आया था और आज ही बिना दरवाजे का मकान रात्रि विश्राम करने को मिला। यह सुनकर आचार्य श्री जी हँसने लगे और बोले कि मैंने दरवाजे बंद और खोलने को मना किया है लेकिन, आँखों के दरवाजे खोलने-बंद करने मना नहीं किया। वे (पलकें) अच्छे ढंग से खोलिये और बंद कीजिए। सभी लोग इस श्लेष पूर्ण शिक्षाप्रद बात को सुनकर प्रसन्न हुये। विनोद ही विनोद में आचार्य श्री जी शिक्षा देते रहते हैं। आचार्य श्री जी उज्ज्वल विनोद के धनी तो हैं ही, साथ में इससे हम लोगों को भी ऐसा धन प्राप्त हो जाता है कि जो जीवन में हरदम काम आता है।
  10. सारा संघ अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी में विराजमान था। श्रावण शुक्ला षष्ठी का दिन था संघस्थ 22 मुनिराजों का उस दिन दीक्षा दिवस था। दूर-दूर से आये हुये श्रद्धालुगण प्रवचन सभागार में बैठकर गुरु महाराज का अमृत पान करने के लिये बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। इंतजार की घड़ियाँ समाप्त हुईं देखते ही देखते आचार्य महाराज ससंघ मंच पर विराजमान हो गये। इस धर्म सभा का संचालन भोपाल से पधारे कवि चंद्रसेन जी कर रहे थे। कवि चंद्रसेन जी ने गुरुदेव के चरणों में कुछ पंक्तियाँ निवेदित कीं। गुरुदेव भक्तों की भक्ति से बचकर दूर कहाँ तक जाओगे। गली-गली में भक्त बिछे हैं। अब कैसे बच पाओगे। तुम्हे भक्तों ने हैरान कर दिया हमने माना बात सही है। पर लाखों लोगों ने तुमको चुरा लिया तुमको कोई खबर नहीं है। हमने भी चोरी की गुरुवर इस चरण चोर को सजा सुना दो। हम ऐसी ही चोरी करते जायें अपना कृपा हाथ उठा दो। बस इसमें कौन सी लगेगी धारा हमको बतला दो गुरुवर। यदि चोरों को माफ कर दिया तो एकनजर मुस्कुरा दो गुरुवर॥ इन पंक्तियों को सुनकर आचार्य भगवन्त उन्मुक्त भाव से मुस्कुरा दिये। हजारों भक्त आनंद से भर गये, ऐसा लग रहा था मानो साक्षात् समवशरण में बैठे हों और प्रभु को अपलक निहार रहे हों। आचार्य भगवन्त मुस्कुरा कर चुपचाप रह गये लेकिन जैसे ही कुछ समय बाद प्रवचन प्रारंभ हुआ तो उन्होंने कहा - भैया, ये दिन दहाड़े चोरी करते हैं और मामला कोर्ट कचहरी तक पहुँचा देते हैं और पूँछते हैं कौन सी धारा लगेगी। तो भैया मुझे तो बोलना ही पड़ेगा कि हम सभी शांतिनाथ भगवान के दरबार में बैठे हैं। हमारे पास तो बस एक ही धारा है वह है - ‘‘शांतिधारा''। यह सुनकर जनता जयकारों के साथ तालियाँ बजाती रही।
  11. किसी सज्जन ने आचार्य महाराज से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- हे गुरुदेव! पिच्छिका ग्रहण करते ही, दीक्षा लेते ही, इतनी सी उम्र में मुनिराजों में इतनी गंभीरता कैसे आ जाती है ? आचार्य भगवन्त ने शंका का समाधान करते हुए कहा - पिच्छिका में ऐसा ही जादू हुआ करता है। हर्ष-विषाद से परे (दूर) हो जाने पर गंभीरता अपने आप आ जाती है। जितना गहरा तत्त्वज्ञान होता है उतनी ही मन की स्थिरता अधिक होती है। मन, सभी परिस्थितियों में स्थिर बना रहता है। यह वस्तु स्वरूप है। वस्तु का परिणमन हमेशा अपने मन के अनुरूप नहीं हो सकता। यह श्रद्धान होते ही कुछ करने की धारणा बदल जाती है। मात्र ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव रह जाता है। राग-द्वेष का अभाव होते ही मन अपने आप एकाग्र हो जाता है एवं समता, शांति का उद्भव हो जाता है। मन में वैराग्य उत्पन्न होते ही संसार की क्षणभंगुरता का भान हो जाता है फिर मन उछल-कूद करना बंद कर देता है। कर्तृत्व-भोक्तृत्व और स्वामित्व की बुद्धि जब तक हमारे जीवन में रहेगी तब तक हमारा मन चंचल बना रहेगा। इस बुद्धि का अभाव होते ही व्यक्ति कर्त्तव्य की ओर मुड़ जाता है एवं उसका मन स्थिर हो जाता है। मन की स्थिरता ही वस्तु तत्त्व के स्वरूप को सही ढंग से जान सकती है अनुभव करा सकती है। दृष्टि मिली पर कब बनूँ, दृष्टा सबका धाम। सृष्टि मिली पर कब बनूँ, सृष्टा निज का राम।
  12. शाम का समय था आचार्य भक्ति के उपरान्त आचार्य श्री जी के चरणों में बैठे हुये थे। तभी कुछ चर्चा के दौरान आचार्य श्री जी ने बताया कि- मैं उस समय ब्रह्मचारी था तब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज से अष्ट सहस्री एवं प्रमेय रत्नमाला का स्वाध्याय कर रहा था। कुछ दिन बाद मेरी सीधी मुनि दीक्षा होने वाली थी। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के पास बड़े-बड़े विद्वान आया करते थे। एक बार मैं प्रमेय रत्नमाला का स्वाध्याय कर रहा था एवं अष्ट सहस्री, वहीं चौकी पर रखी हुई थी। मैं स्वाध्याय में लीन था। वहाँ पं. हीरालाल जी मड़ावर वाले आये मैंने उस ओर ध्यान नहीं दिया वे वहाँ चारों तरफ घूमकर जब वापिस जाने लगे तब उन्होंने कहा - साधु का पद दूर है, जैसे पेड़ खजूर। चढे तो फल चाखन मिले, गिरे तो चकनाचूर॥ इतना कहकर पं. जी तो चले गये। मुझे पूरा दोहा याद नहीं रहा क्योंकि मुझे उस समय हिन्दी कम आती थी मात्र इतना ही याद रहा गिरे तो चकनाचूर। मैंने आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज को बताया तो उन्होंने पूरा दोहा सुना दिया। मैंने सोचा कि-वास्तव में साधु का पद ऐसा ही है यदि पा लिया तो आत्मा का रस चखने मिलेगा वरना रह गया संसार में। जो आत्मा की साधना करते हैं उन्हें साधु कहा जाता है। लौकिक सिद्धि की कामना से रहित होकर उद्देश्य मात्र कर्म निर्जरा और मोक्ष प्राप्ति का होता है तभी जीवन में साधुत्व घटित होता है। मात्र साधु का भेष धारण करने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। यह गुरु महाराज के इस प्रसंग से हमें शिक्षा प्राप्त होती है।
  13. आज भौतिकता के युग में धार्मिक संस्कार प्रायः लुप्त होते चले जा रहे हैं। संस्कारों के बारे में आज के मानव का रुझान ही नहीं रहा है। आज का युग मात्र अर्थ तक ही सीमित रह गया है। अर्थकरी विद्या को ही आज महत्व दिया जा रहा है, इस अर्थ के युग में परमार्थ की बात गौण होती जा रही है। आज व्यक्ति धन के लिए घर-परिवार, धर्म सब कुछ छोड़कर, सात समुन्दर पार जाने को तैयार है लेकिन, संस्कार के अभाव में धन, क्या जीवन को सार्थक बना सकता है? जीवन की सार्थकता तो धार्मिक संस्कारों में ही है। इसके बारे में सोचना अनिवार्य है। आचार्य महाराज ससंघ बीना बारहा अतिशय क्षेत्र में विराजमान थे। उस समय आत्मानुशासन ग्रंथ की वाचना चल रही थी। संस्कार के बारे में व्याख्यान करते हुए आचार्य महाराज ने कहा कि-संस्कार बचाये रखना चाहते हो तो बच्चों का निर्यात बंद कर दो, विदेश भेजना बंद कर दो। सात्विक व्यापार से सात्विक धन कमाओं वही सुख-शांति देगा। किसी सज्जन ने कहा-आचार्य श्री ! आज हमारे देश का व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की ओर बढ़ रहा है। यह सुनकर आचार्य श्री जी बोले कि -अन्तर्राष्ट्रीय की जगह अन्तर्दृष्टि व आत्मजगत की ओर बढ़ो। संस्कारों को जीवित रखना चाहते हो तो आत्मा की बात सुना करो, पढ़ा करो। मात्र अर्थ की शिक्षा को ही सर्वोपरि मत बनाओ। विदेश में जाकर रहने से कुलाचार का भी पालन नहीं हो पाता, रोज मंदिर नहीं जा सकते। देव दर्शन की वहाँ पर समुचित व्यवस्था नहीं है। अमेरिका जैसे देश में मंदिर भी हैं। लेकिन बहुत दूर हैं प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन नहीं जा पाते जिसके कारण उनका कुलाचार का भी पालन नहीं हो पाता। फिर अन्य धार्मिक संस्कारों की तो बात ही नहीं होती। (अतिशय क्षेत्र बीना बारहों जी 30.08.2005)
  14. जो जैसा स्वयंजीवन में जीते हैं ,वही औरों को भी उपदेश देते हैं। उनकी कथनी हमेशा करनी से भरी हुई होती है जो कि हम सभी को अंदर से प्रभावित करती है उनके प्रति श्रद्धान को मजबूत बनाती है। गर्मी का समय था कुण्डलपुर में ग्रीष्मकालीन वाचना प्रारंभ हो चुकी थी। वहाँ पर विशेष रूप से चारों ओर कुण्डलाकार पहाड़ी होने से गर्मी ज्यादा पड़ती है वहीं ऊपर पहाड़ पर शौच क्रिया के उपरान्त आचार्य महाराज एवं हम कुछ महाराज पेड़ के नीचे बैठे हुए थे। चर्चा चल रही थी, चर्चा के दौरान आचार्य महाराज ने शिक्षा देते हुए कहा - पहले मुनिराज ऐसे ही जंगलों में, पहाड़ों पर, गिरि-गुफाओं में रहा करते थे। आज हीन संहनन की वजह से नगरों में रहने लगे। आज हम इतनी साधना नहीं कर सकते कोई बात नहीं, लेकिन मौन की साधना एवं नासा दृष्टि रखे रहने की साधना अवश्य कर सकते हैं। नेत्र इन्द्रिय के व्यापार से, इधर-उधर देखने से, पर पदार्थ की ओर दृष्टि ले जाने से राग-द्वेष अधिक होता है एवं बोलने के माध्यम से ही पर का परिचय होता है। जिससे राग-द्वेष बढ़ता है मन में चंचलता आती है। इसलिए, नेत्रेन्द्रिय एवं रसनेन्द्रिय पर संयम रखना अनिवार्य है यदि हमने नेत्रेन्द्रिय एव जिह्वा इन्द्रिय को संयत बना लिया तो समझना आज भी बहुत बड़ी साधना कर ली। आचार्य महाराज प्रायः घण्टों-घण्टों नासा दृष्टि किए हुए, पद्मासन लगाकर ध्यान मुद्रा में मौन बैठे रहते हैं। और यही हम साधकों से भी उपदेश में कहते हैं। सच है इस कलि काल में भी ऐसी साधना करने वाले साधकों के चरणों में अपना मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है। इनके दर्शन करने से उन जंगलों में रहने वाले मुनियों की याद आती है कि जैसे गुरुदेव हमेशा शहरों से, नगरों से दूर एकान्त जंगली इलाके के क्षेत्रों पर जाकर साधना करते हैं, वे मुनिराज भी ऐसा ही करते होंगे। जैसे हमने शास्त्रों में सुना है, पढ़ा है वैसी ही साधु की अदभुत चर्या के दर्शन उनके चरणों में आकर करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। उन्हें देखकर आँखें तृप्त नहीं होतीं। ऐसा लगता है हमेशा उनकी वीतराग छवि के दर्शन करता रहूँ। (कुण्डलपुर)
  15. विहार करता हुआ पूरा संघ अकलतरा की ओर बढ़ रहा था। वहाँ जाने के लिए दो। रास्ते थे, एक पक्की सड़क से होकर और एक कच्चे रास्ते से होकर जाता था। कच्चा रास्ता दूरी में कम पड़ता था। वहाँ पर अनेक लोगों ने अपने-अपने ढंग से बताया। कुछ महाराज पहले ही बताये गये रास्ते से आगे निकल गये। एक वृद्ध दादाजी ने आकर बताया कि बाबाजी! आप लोग तो सीधे इसी रास्ते से निकल जाइये, आप जल्दी पहुँच जायेंगे और रास्ता भी ठीक है। मैं इस रास्ते से अनेकों बार आया-गया हूँ। तब आचार्य महाराज जी के साथ हम सभी महाराज उसी रास्ते पर चल दिये। आगे चलकर देखा-रास्ता एकदम साफ सुथरा था एवं दूरी भी कम थी। आचार्य महाराज ने कहा - देखो, उस वृद्ध का बताया हुआ| रास्ता एकदम सही है क्योंकि यह "अनुभूत रास्ता" है। इसी प्रकार मोक्षमार्ग में हर किसी के बताये रास्ते पर नहीं चलना चाहिए बल्कि, जो अनुभूत कर चुके हैं ऐसे ही वीतरागी गुरु के बताये रास्ते पर ही चलना चाहिए। तभी हम सुरक्षित और जल्दी मोक्षमार्ग प्राप्त कर सकते हैं और जल्दी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। दुनियाँ में न जाने कितने रिश्ते हैं, और न जाने कितने रास्ते हैं, इसलिए यह प्राणी सही रास्ता सही रिश्ता क्या है, इसे भूल गया है, भगवान और भक्त का गुरु और शिष्य का रिश्ता ही दुनियाँ में सही रिश्ता है एवं भगवान और गुरु जिस रास्ते पर हैं वही सही रास्ता है-'अनुभूतरास्ता'......
  16. अहिंसा ही जिस देश की संस्कृति के प्राण हो उस भारतीय संस्कृति में मांस का निर्यात विदेशों में हो रहा है, यह संस्कृति पर महान कुठाराघात है। करुणा के अभाव में अभिमान और हिंसा के सद्भाव में देश में कष्ट, अशांति, यातनायें प्रारंभ हो गयी हैं। यदि, इन्हें मिटाना है तो अहिंसा का पालन करना होगा। हमें आजादी यदि अहिंसा से मिली है तो उसे कायम रखने के लिए अहिंसा ही अनिवार्य है। देश अहिंसा के अभाव में कैसे उन्नति कर सकता है? आचार्य श्री जी ने एक दिन प्रवचन में कहा कि-आज भारत के पास सब कुछ है। लेकिन तीन अक्षर वाला हृदय नहीं है। हे प्रभु! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि-भारत को हृदय दे दो। हृदय शून्य ही मनमानी करता है। शव की भांति रह गया-भारत, हृदय शून्य हो गया है। तभी मांस निर्यात हो रहा है। स्वतंत्रता का इस देश में स्वतंत्र हृदय से उपयोग नहीं हो रहा है। हृदय शून्य वही है जिसमें अहिंसा पर आस्था नहीं है। यदि हृदय में सत्य, अहिंसा है तो हमारा राम, महावीर से आज भी संबंध है। हृदय से संबंध होता है तो आँखों से आंसू आने लगते हैं। आज का विज्ञान प्रगति में लगा है अहिंसा में कोई वृद्धि नहीं है। देश व्यक्तियों का नाम नहीं है बल्कि संस्कृति का नाम देश है। हृदय से स्वीकारना ही वस्तुत: धर्म है। वही महत्वपूर्ण है। दया धर्म की शरण लेने वाला व्यक्ति निर्मल, पवित्र और लोकप्रिय बन जाता है। दया के बिना धर्म की शुरुआत भी नहीं होती और पूर्णता भी नहीं इसलिए भारतीय संतों ने सबसे पहले दया, अनुकंपा का उपदेश दिया है। इसलिए, हमारा हृदय दया से आपूरित होना चाहिए तभी हम भारतीय कहलाने योग्य हैं। मन से, वचन से, काय से किसी को भी कष्ट न देना सबसे बड़ा उपकार है। सत्य और अहिंसा के आधार पर ही भारत को विश्व गुरु की संज्ञा प्राप्त है। आज इस ओर ही भारतीयों को दृष्टिपात करना चाहिए। (26.01.2002 गोटेगाँव )
  17. वैशाख कृष्ण सप्तमी को दीक्षा दिवस के दिन हम सभी (दीक्षित) महाराज आचार्य महाराज के श्री चरणों में नमोऽस्तु करके बैठ गये। आचार्य महाराज ने कहा -क्यों कुछ कहना है क्या ? शिष्य ने कहा - नहीं! कुछ सुनना है आपसे। तब आचार्य महाराज ने कहा मोक्षमार्ग तो भीतर अधिक है। बाहर कम। इसलिए साधक को हमेशा अंदर यानि आत्मा में ही रहना चाहिए बाह्य प्रवृत्ति कम करना चाहिए। आगे उन्होंने कहा भरा घड़ा तो खाली लगे जल में हवा से बचें। जैसे भरा हुआ घड़ा भी जल में डूबा हो तो खाली-सा लगता है। लेकिन, ज्यों ही पानी से बाहर आता है तो दुगुना भार का हो जाता है। ठीक उसी प्रकार साधक जब आत्मा में (अंतरंग में) रहता है तब अपने आप को हल्का-हल्का महसूस करता है लेकिन ज्यों बाहर आया, व्यवहार में कि भार सा लगने लगता है। आज संसार में जो भी विचित्रता दिखायी दे रही है यह सब गड़बड़ी बाहरी हवा के कारण हो रही है। इसलिए, साधक को मात्र अपनी आत्मा की साधना में लगे रहना चाहिए बाहरी हवा (प्रलोभनों) से बचते रहना चाहिए। नौ मास उल्टा लटका आज तप कष्ट कर क्यों ? यदि संसारी प्राणी को यह ज्ञात हो जावे कि वह नव मास तक माँ के पेट में उल्टा लटका रहा तो फिर उसे ये कष्टकर प्रतीत नहीं होंगे उन्होंने आगे बताया की - इस वेग में अपढ़ हों या पढ़े सब एक हैं। उस वेग में यानि मोक्षमार्ग में संवेग, निर्वेद में पढ़े और अपढ़ दोनों एक से हैं। क्रोध के वेग में पढ़े और अपढ़ दोनों एक से हैं इसलिए ज्ञान के पीछे नहीं भागना चाहिए स्थिर ज्ञान ही ध्यान है। ज्ञान महत्त्वपूर्ण नहीं है मन की स्थिरता महत्त्वपूर्ण है। अध्यात्म स्टेरिंग की भांति है जिसके माध्यम से रत्नत्रय रूपी गाड़ी को जैसा चाहो वैसा मोड़ सकते हो। उपसर्ग परीषह के समय अध्यात्म ही काम आता है। साधक को हमेशा अध्यात्ममय जीवन जीना चाहिए। अध्यात्म योगी गुरुदेव की प्रत्येक चर्या में, शब्द में अध्यात्म का रस भरा हुआ है वे अध्यात्म का जीवन जीते हुये हम सभी को उसी अध्यात्म का पान कराते हैं। उनके उपकारों से हम सब कृतज्ञ हैं। जीवन भी समर्पित कर दिया जावे इन चरणों में तो क्या, उपकार चुकाया जा सकता है? नहीं! कभी नहीं। उन अनंत उपकारी गुरुदेव के चरणों में बार-बार नमोऽस्तु...... मन को वश में करके कोई क्यों नहीं देख लेता इस परम सत्य को कि मन को वश में करने से नर की तो बात ही क्या जब नारायण भी वश में हो जाते हैं..... (अतिशय क्षेत्र रामटेक जी 26.04.2004)
  18. हम सब संसार में रहकर रोज, प्रतिदिन संसार की वस्तुओं को देखते हैं लेकिन हमारी दृष्टि उस ओर नहीं जा पाती। ये वस्तुयें हमें संसार की नश्वरता का बोध कराती हैं। यदि हम चाहें तो प्रत्येक वस्तु से या घटना से कुछ सीख सकते हैं, वैराग्य प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन हमारी दृष्टि उस वस्तु के स्वरूप की ओर जाना चाहिए तभी यह संभव है। सर्वोदय तीर्थक्षेत्र अरमकण्टक 12.10.2003 रविवार की बात है मैं शाम को छत पर खड़ा था। सूर्य अस्त होता जा रहा था उसी ओर ध्यान लगाये था कि इतने में आचार्य महाराज भी छत पर पधार गये कहने लगे कुंथु क्या देख रहे हो ? मैंने नमोऽस्तु करते हुए कहा- देखो आचार्य श्री जी! सूर्य आधे से ज्यादा डूब गया, थोड़ी देर बाद अस्त होने वाला है। तब आचार्य महाराज जी ने कहा - ‘‘ऐसा ही हमारा जीवन है कब अस्त हो जावे पता ही नहीं।'' इससे सिद्ध होता है कि आचार्य महाराज की दृष्टि हमेशा वस्तुओं में तत्त्व एवं वैराग्य की बात ही देखा करती हैं। किसी ने कहा भी है कि -साधु की दृष्टि में, आँखों में हमेशा वैराग्य रहता है। यदि कोई व्यक्ति जीवन में घटित होने वाली किसी भी घटना को बारीकी से लेता है। तो वह घटना उसके जीवन में अध्यात्म घटित कर जाती है। उसके अंदर एक वास्तविकता का जन्म होता है, शाश्वत की प्यास जागती है। राजमार्ग से महाराजमार्ग की ओर बढ़ जाता है, मोहमार्ग से मोक्षमार्ग की ओर बढ़ जाता है। संसार में वैसे तो घटनाओं का घटनाक्रम चल ही रहा है लेकिन इस घटनाक्रम के चलते यदि जीवन में कुछ अभूतपूर्व घटित हो जाता है तो फिर कहना ही क्या ? फिर तो उसका संसार चक्र ही घट सकता है। ऐसी घटना सभी के जीवन में घटित हो एवं उसे देखने की दृष्टि भी उपलब्ध हो। (सर्वोदय तीर्थक्षेत्र अरमकण्टक 12.10.2003)
  19. आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के ५० वे संयम स्वर्ण महोत्सव के उपलक्ष में अपराजेय साधक नाम से राजधानी दिल्ली में भव्य कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज मुनिश्री प्रणम्यसागर जी महाराज मुनिश्री चन्द्रसागर जी महाराज मुनिश्री वीरसागर जी महाराज मुनिश्री विशालसागर जी महाराज मुनिश्री धवलसागर जी महाराज के पावन सानिध्य में श्री सचिन जैन, शहादरा, दिल्ली श्री आशीष जैन, शक्ति नगर एक्सटेंशन, दिल्ली एवं उनके साथियों के अथक परिश्रम से 15/04/2018, रविवार दोपहर 1:00 बजे से श्री विद्यासागर वाटिका, सी.बी.डी. ग्राउंड, शहादरा, दिल्ली में कार्यक्रम का सीधा प्रसारण पारस चैनल एवं जिनवाणी चैनल के माध्यम से किया जाएगा |
  20. नेमावर सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र में पूरा संघ विराजमान था। एक दिन एक पंडित जी किशनगढ़ मदनगंज (राजस्थान) से आचार्य महाराज जी के पास आये और चर्चा करते हुये उन्होंने आचार्य महाराज के सामने एक शंका रखी - आचार्य श्री जी! अबुद्धिपूर्वक जो राग होता है उसे कैसे छोड़ा जाये, तो आचार्य महाराज ने कहा- पंडित जी विद्वान लोग बुद्धिपूर्वक जो राग करते हैं उसे छोड़ने की बात क्यों नहीं करते ? अबुद्धिपूर्वक की बात करते हैं। पंडित जी ...... नहीं महाराज जी बुद्धिपूर्वक राग नहीं है अब तो अबुद्धिपूर्वक हो रहा है। आचार्य श्री जी ने कहा - यदि आपको नेमावर आना है तो आपका मुख दिल्ली की ओर क्यों है ? गाड़ी दिल्ली की ओर मुड़ जाती है क्या ये सब अबुद्धिपूर्वक होता है। पंडित जी कुछ रुके सोचकर बोले आचार्य श्री जी हमारा हृदय तो इसी ओर रहता है भले मुख दिल्ली की ओर हो। तब आचार्य श्री जी ने कहा-मुख भी इसी ओर होना चाहिए, फिर दिल्ली पहुँच जाओगे तो समझना यह कार्य अबुद्धिपूर्वक हुआ है। तर्कपूर्ण शंका का समाधान सुनकर पं. जी खुश हो गये। पंडित जी ने दूसरी शंका रखी- आचार्य श्री जी, आचार्य कुंदकुंद भगवान जी ने जो गाथायें लिखी है वे प्रमाद दशा (छटवें गुणस्थान) में लिखीं होगी क्योंकि निर्विकल्प समाधि में तो लिखा नहीं जा सकता। आचार्य श्री जी ने कहा - हाँ, पंडित जी ! आचार्य भगवान ने गाथायें प्रमाद दशा में ही लिखीं हैं लेकिन उन गाथाओं में कहीं भी प्रमाद नहीं झलकता। पंडित जी इस समाधान को सुनकर बहुत प्रसन्न हुये और हाथ जोड़कर नमोऽस्तु किया। अंत में आचार्य श्री जी ने कहा - पहले बुद्धिपूर्वक राग छोड़ो फिर हम बतलाएँगे कि अबुद्धिपूर्वक कैसे छोड़ा जाता है। (नेमावर 2002)
  21. सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर में सारा संघ विराजमान था। आचार्य भगवन्त के श्रीमुख से तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथ का वाचन हम सभी लोग सुन रहे थे। नवम अध्याय के आठवें सूत्र का व्याख्यान करते हुए कहा कि-मार्ग से स्खलित न हो पायें एवं निर्जरा स्थान बना रहे। इसके लिए साधक को हमेशा उपसर्ग, परीषह सहन करना चाहिए, पीछे नहीं हटना चाहिए। क्योंकि, धर्म बड़ी ही कठिनाई से प्राप्त होता है और इसका पालन करना भी कठिन होता है। परीषह सहन करने से कर्मों की निर्जरा होती है एवं साधना में निखार आता है। मोक्षमार्ग के साधक को कभी भूलकर भी ठण्ड में हीटर का एवं गर्मी में पंखे का उपयोग नहीं करना चाहिए। यह चर्या वीर भगवान की चर्या है इस चर्या का भगवान ने भी पालन किया है इसके महत्त्व को समझना चाहिए। आचार्य भगवन्त ने अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की साधना के बारे में बतलाया कि- एक बार एक सज्जन ने आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज, जिस पाटे पर विराजमान थे उस पाटे पर लकड़ी का तकिया (सिरहाना) रख दिया। तब आचार्य महाराज जी ने कहा भैया लकड़ी की क्यों मखमल की लगा दो फिर वह व्यक्ति महाराज श्री का अभिप्राय समझ गया कि महाराज इसे भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। बल्कि, हमें शिक्षा दे रहे हैं। कि साधु सुविधा के साथ नहीं रहते और वह व्यक्ति दो-तीन दिन तक महाराज जी के पास आया ही नहीं। उसे अपनी गलती महसूस हो गयी। यह साधना थी, आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की। आज हम परीषहों से घबराते हैं। हमें भी ऐसे साधकों से शिक्षा ले लेना चाहिए कि मार्ग तो मार्ग होता है। सिद्धांत, सिद्धांत होता है उसमें समझौता नहीं होता। इस मार्ग पर चलने वाले के तो प्रत्येक बात को सहन करने पर निर्जरा होती है। घबराओ नहीं, जिनदर्शन के प्रति विशुद्धि हमेशा बनी रहनी चाहिए। (19.09.2002 सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर)
  22. सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर में चातुर्मास के दौरान, पर्युषण पर्व के अवसर पर तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथ के सप्तम अध्याय के ग्यारहवें सूत्र का अर्थ समझाते हुए आचार्य श्री ने बताया कि हम साधकों के लिए कभी किसी को आदेश नहीं देना चाहिए, मात्र उपदेश देना चाहिए। तभी हमारे व्रत निर्दोष पल सकते हैं और दूसरों को भी हमारे माध्यम से आघात नहीं पहुँचेगा। आचार्य श्री जी ने आगे बताया कि किसी ने मुझसे आकर कहा महाराज, आप मुझे कुछ आदेश दीजिए। यह सुनकर मैंने कहा - हमारे उपदेश को ही आदेश समझ लीजिए। भैया आज्ञा देते समय अच्छा नहीं लगता यदि कहीं सामने वाले को टीस पहुँच गयी तो। और सुनो-आज्ञा उसे दी जाती है, आज्ञा को सुनकर जिसके मन में झुंझलाहट नहीं आती, श्रद्धा के साथ स्वीकार कर लेता है। बार्डर पर ऑर्डर जल्दी नहीं दिया जाता। उसके अंदर स्वाभिमान ऐसा भर जाना चाहिए ताकि वह आज्ञा का उल्लंघन न कर सके। हनुमान बनना तो सरल है लेकिन राम बनना कठिन है। आज्ञा पालना सरल है। लेकिन आज्ञा देना कठिन है स्वयं मोक्षमार्ग पर चलते हुए दूसरों को मार्ग पर चलाना कठिन है। जो उपदेश को ही आदेश मानकर चलता है उसे आदेश देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आज्ञाकारी शिष्य वही माना जाता है जो गुरु के संकेत को समझ लेता है एवं उस संकेत के अनुसार चलता है। जो शिष्य गुरु की आज्ञानुसार चलता है वह शीघ्र ही अपना कल्याण कर लेता है और दूसरों के लिए भी एक आदर्श बन जाता है। (17.09.02 सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर)
  23. मनुष्य के पास पाँच इन्द्रियाँ हुआ करती हैं जिनके माध्यम से वह विषयों को ग्रहण करता रहता है। यह संसारी प्राणी अनादिकाल से चार संज्ञाओं (आहार, भय, मैथुन और परिग्रह) और पंचेन्द्रियों के विषयों के वशीभूत होता आया है और ज्ञान का हमेशा दुरुपयोग करता आया है। इसने अपने मन को कभी भी वश में नहीं किया इसलिए इसके इतिहास में पाँच पापों की लालस्याही पुती हुई है। आचार्य श्री जी ने बताया कि-पाँच इन्द्रियों का व्यापार जीव की मानसिकता को बता देता है। यह जीव स्वयं इन्द्रिय और मन का दास बनकर उसकी पूर्ति करता रहता है, आप सभी लोगों की भी यही दशा है। आप बरसात में वाटरप्रूफ पहनते हो, सर्दी में एयरटाइट पहनते हो और गर्मी में एयर कंडीश्नर में रहते हो। ध्यान रखना, इससे पापों का ही विकास हो रहा है। आचार्य भगवन् कहते हैं - पंचेन्द्रिय और मन के नौकर मत बनो, उन्हें अपना नौकर बनाओ आप मालिक बनों, उन्हें वश में रखो। जीवन में कुछ व्रत, नियम स्वीकार करो। अंत में उन्होंने कहा-व्रत ऐसा पक्का होना चाहिए जैसे कपड़े पर लगा पक्का रंग, जो कपड़ा फटने तक रहता है, उड़ता नहीं। ठीक उसी प्रकार लिये गये प्रण भी ऐसे हों कि प्राण चले जावें तब भी निभाना चाहिए। इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि व्रत, नियम, संयम की ओर कदम बढ़ाना चाहिए तभी हमारा मानव जीवन सार्थक हो सकता है। क्योंकि, इस पापमय जीवन को पवित्र बनाने का एक ही उपाय है ‘संयम'। प्राण तो पुनः मिल सकते हैं लेकिन प्रण मिलना कठिन है। इसलिए, प्राणों की रक्षा में प्रण नहीं छोड़ना चाहिए। बल्कि, प्राण चले जाने पर भी प्रण नहीं जाना चाहिए। प्रण की रक्षा करोगे तो प्राणों की रक्षा अपने आप हो जावेगी। व्यर्थ नहीं वह साधना, जिसमें नहीं अनर्थ। भले मोक्ष हो देर से, दूर रहे अघगर्त ॥ (अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी 2005)
  24. प्राचीन काल में सुविधाएँ कम थीं, लेकिन सात्विकता ज्यादा थी। आज सुविधायें तो बढ़ गयीं लेकिन सात्विकता एवं सादगी समाप्त होती चली जा रही है। इसलिए उपदेशक का समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। साधनों के चक्कर में आज साधना भटक गयी है, निरीहता एवं सादगी के बिना त्यागी (उपदेशक) का समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। सात्विकता के साथ ही व्रतों का पालन होता है एवं उसी का समाज पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार का उद्बोधन आचार्य श्री जी के श्रीमुख से चल रहा था इतने में किसी सज्जन ने शंका व्यक्त करते हुए कहा - कि आचार्य श्री जी वर्तमान में प्रवचन के बिना भी तो प्रभाव नहीं पड़ता ? आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा - नहीं, ऐसा नहीं है, "वर्धमान को देखो, वर्तमान को नहीं।" प्रवचन में बुद्धि विलास नहीं करना पड़ता बल्कि धार्मिक बातें करनी पड़ती हैं। विषय कषाय से बचने का उपदेश देना होता है। इसी से प्रभावना होती है। इसलिए संकीर्णता को मिटाकर एकता, वात्सल्य को अपनाना चाहिए। आज धर्मशाला चाहिए, चाहे धर्म रहे या नहीं। यह बड़ी विडम्बना है। जब मैंने पहली बार नैनागिर में चातुर्मास किया तब एक छोटी सी टपरिया (झोपड़ी) में प्रवचन होते थे। आज जितनी सुविधायें बढ़ गयीं उतनी दुविधायें भी बढ़ने लगी हैं। उपदेशक का झुकाव वैराग्य की ओर, आत्मदर्शन की ओर होना चाहिए न कि प्रदर्शन की ओर। त्यागी को आईना बनना चाहिए काँच नहीं। ताकि दूसरे लोग आपको आदर्श मानकर अपना प्रतिबिंब देख सकें एवं आपका जीवन समाज के लिए आदर्श कायम कर सके। (21.10.2003)
  25. आज के वर्तमान युग में यदि देखा जाये तो व्यक्ति पूर्णत: धर्म से विलग होता चला जा रहा है। शाकाहार जो कि जीवन का आधार है उससे भी दूर भागता चला जा रहा है। खान-पान की वस्तुओं के अलावा शरीर के बाह्य उपयोग में आने वाली वस्तुओं में भी मांस, चर्बी आदि का उपयोग होने लगा है। आज बाजार की किसी भी वस्तु पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि यह पूर्ण शाकाहारी एवं सात्विक है। आज का व्यवसाय धन के लोभ के कारण गंदा हो गया है। आचार्य श्री जी ने एक दिन बताया कि-ऐसा व्यापार करो जिससे मांसाहार का विरोध एवं शाकाहार का प्रचार हो। शहद की एक बूंद ग्रहण करने से सात गांव जलाने के बराबर पाप लगता है। जो इस बात से अनभिज्ञ हैं उन्हें समझाकर शहद की जगह चासनी का उपयोग करें ऐसा उपदेश दे सकते हैं। चर्बी मिश्रित साबुन आदि से शरीर और वस्त्र कभी भी स्वच्छ नहीं हो सकते बल्कि अपवित्र और हो जाते हैं इसलिए ऐसी साबुन एवं सोडा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। आचार्य श्री जी ने आगे बताया कि - अजमेर में एक ब्रह्मचारी जी थे वे कभी भी साबुन सोडा का उपयोग नहीं करते थे। पंद्रह दिन में एक दिन मिट्टी से स्नान करते थे। उससे त्वचा रोग आदि भी नहीं होते थे और शरीर की शुद्धि भी बनी रहती थी। इस प्रकार विवेक का उपयोग करने से ही धर्म का पालन संभव है। इस प्रसंग से हम सभी को यही शिक्षा ले लेनी चाहिए कि-शरीर में भी ऐसी वस्तुओं का उपयोग न करें जिसके माध्यम से पाप का बंध हो एवं सात्विकता समाप्त होती हो। सात्विकता के अभाव में किया गया कार्य क्रूरता एवं शोषण का ही परिचायक है। जब पानी भी छानकर पीने को कहा गया है तो पंचेन्द्रिय जीव की चर्बी जिसके साथ हो ऐसे पदार्थों को कभी भी स्पर्श नहीं करना चाहिए तभी हम सही मायने में अहिंसक कहला सकते हैं। (सर्वोदय क्षेत्र अमरकंटक 05.08.2003)
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