संसार में प्रत्येक प्राणी सुख-शांति चाहता है और दुःख क्लेश से बचना चाहता है। चाहे वह चींटी से लेकर विशालकाय हाथी ही क्यों न हो सुख-शांति सभी को प्रिय है। लेकिन, वह उस प्रिय वस्तु शांति से बहुत दूर है। वह दुनियां के पर-पदार्थों में शांति की खोज कर रहा है, जबकि बाह्य पदार्थों से कभी भी सुख-शांति नहीं मिल सकती। आकुलता, अशांति और बढ़ती चली जाती है। बाह्य सुविधायें दुविधा का ही कारण बन जाती हैं।
अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी में चातुर्मास के अंतर्गत एक दिन किसी सज्जन ने आचार्य श्री से निवेदन किया कि -हे गुरुदेव ! हम लोगों को आप कृपा कर शांति का मार्ग बतला दीजिए। आचार्य श्री जी ने कहा - परिग्रह त्याग के बिना शांति का मार्ग नहीं मिल सकता। परिग्रह और मन की शांति दोनों एक साथ नहीं रह सकते। इन दोनों में आपस में चूहे और बिल्ली जैसा जात्य बैर है। यदि जीवन में शांति चाहते हो तो कषाय को जीतो, परिग्रह का त्याग करो। जब चूल्हे के नीचे की आग बुझ जाती है, हट जाती है तो ऊपर रखे भगोनी के पानी का उबलना अपने आप बंद हो जाता है। वैसे ही परिग्रह, कषाय का त्याग करने के बाद मन शांति का अनुभव करने लगता है, पूर्व संस्कार होने से थोड़ा-सा मन अशांत भी रह सकता है यह बात अलग है। अंत में आचार्य श्री ने मुस्कुराते हुये कहा जिनवाणी की वीणा बजाओं और बारह भावना भाओ-बीना वालों। बीना बारहा में रहने का यही उद्देश्य है। फिर मन को अवश्य ही शांति मिलेगी।