अहिंसा ही जिस देश की संस्कृति के प्राण हो उस भारतीय संस्कृति में मांस का निर्यात विदेशों में हो रहा है, यह संस्कृति पर महान कुठाराघात है। करुणा के अभाव में अभिमान और हिंसा के सद्भाव में देश में कष्ट, अशांति, यातनायें प्रारंभ हो गयी हैं। यदि, इन्हें मिटाना है तो अहिंसा का पालन करना होगा। हमें आजादी यदि अहिंसा से मिली है तो उसे कायम रखने के लिए अहिंसा ही अनिवार्य है। देश अहिंसा के अभाव में कैसे उन्नति कर सकता है?
आचार्य श्री जी ने एक दिन प्रवचन में कहा कि-आज भारत के पास सब कुछ है। लेकिन तीन अक्षर वाला हृदय नहीं है। हे प्रभु! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि-भारत को हृदय दे दो। हृदय शून्य ही मनमानी करता है। शव की भांति रह गया-भारत, हृदय शून्य हो गया है। तभी मांस निर्यात हो रहा है। स्वतंत्रता का इस देश में स्वतंत्र हृदय से उपयोग नहीं हो रहा है। हृदय शून्य वही है जिसमें अहिंसा पर आस्था नहीं है। यदि हृदय में सत्य, अहिंसा है तो हमारा राम, महावीर से आज भी संबंध है। हृदय से संबंध होता है तो आँखों से आंसू आने लगते हैं।
आज का विज्ञान प्रगति में लगा है अहिंसा में कोई वृद्धि नहीं है। देश व्यक्तियों का नाम नहीं है बल्कि संस्कृति का नाम देश है। हृदय से स्वीकारना ही वस्तुत: धर्म है। वही महत्वपूर्ण है। दया धर्म की शरण लेने वाला व्यक्ति निर्मल, पवित्र और लोकप्रिय बन जाता है। दया के बिना धर्म की शुरुआत भी नहीं होती और पूर्णता भी नहीं इसलिए भारतीय संतों ने सबसे पहले दया, अनुकंपा का उपदेश दिया है। इसलिए, हमारा हृदय दया से आपूरित होना चाहिए तभी हम भारतीय कहलाने योग्य हैं। मन से, वचन से, काय से किसी को भी कष्ट न देना सबसे बड़ा उपकार है। सत्य और अहिंसा के आधार पर ही भारत को विश्व गुरु की संज्ञा प्राप्त है। आज इस ओर ही भारतीयों को दृष्टिपात करना चाहिए।
(26.01.2002 गोटेगाँव )