आज के वर्तमान युग में यदि देखा जाये तो व्यक्ति पूर्णत: धर्म से विलग होता चला जा रहा है। शाकाहार जो कि जीवन का आधार है उससे भी दूर भागता चला जा रहा है। खान-पान की वस्तुओं के अलावा शरीर के बाह्य उपयोग में आने वाली वस्तुओं में भी मांस, चर्बी आदि का उपयोग होने लगा है। आज बाजार की किसी भी वस्तु पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि यह पूर्ण शाकाहारी एवं सात्विक है। आज का व्यवसाय धन के लोभ के कारण गंदा हो गया है।
आचार्य श्री जी ने एक दिन बताया कि-ऐसा व्यापार करो जिससे मांसाहार का विरोध एवं शाकाहार का प्रचार हो। शहद की एक बूंद ग्रहण करने से सात गांव जलाने के बराबर पाप लगता है। जो इस बात से अनभिज्ञ हैं उन्हें समझाकर शहद की जगह चासनी का उपयोग करें ऐसा उपदेश दे सकते हैं। चर्बी मिश्रित साबुन आदि से शरीर और वस्त्र कभी भी स्वच्छ नहीं हो सकते बल्कि अपवित्र और हो जाते हैं इसलिए ऐसी साबुन एवं सोडा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। आचार्य श्री जी ने आगे बताया कि - अजमेर में एक ब्रह्मचारी जी थे वे कभी भी साबुन सोडा का उपयोग नहीं करते थे। पंद्रह दिन में एक दिन मिट्टी से स्नान करते थे। उससे त्वचा रोग आदि भी नहीं होते थे और शरीर की शुद्धि भी बनी रहती थी। इस प्रकार विवेक का उपयोग करने से ही धर्म का पालन संभव है।
इस प्रसंग से हम सभी को यही शिक्षा ले लेनी चाहिए कि-शरीर में भी ऐसी वस्तुओं का उपयोग न करें जिसके माध्यम से पाप का बंध हो एवं सात्विकता समाप्त होती हो। सात्विकता के अभाव में किया गया कार्य क्रूरता एवं शोषण का ही परिचायक है। जब पानी भी छानकर पीने को कहा गया है तो पंचेन्द्रिय जीव की चर्बी जिसके साथ हो ऐसे पदार्थों को कभी भी स्पर्श नहीं करना चाहिए तभी हम सही मायने में अहिंसक कहला सकते हैं।
(सर्वोदय क्षेत्र अमरकंटक 05.08.2003)