प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक निजी कर्तव्य होता है घर परिवार में रहता है तो भी वह अपना कर्तव्य पालन करता है। समाज राष्ट्र के क्षेत्र में भी उसका एक कर्तव्य होता है। कर्त्तव्य का अर्थ है- हम जिस भूमिका में हैं उस भूमिका में करने योग्य कार्य। श्रावक का भी अपना कर्त्तव्य होता है और साधुओं के भी अपने कर्तव्य होते हैं। कर्त्तव्य के अभाव में जीवन शोभा को प्राप्त नहीं होता, कर्तव्य का पालन निष्ठा और उत्साह के साथ करना चाहिए।
एक दिन आचार्य श्री ने कहा कि - आज इस कलिकाल में चारों ओर तूफान ही तूफान है, कर्तव्य के प्रति निष्ठावान व्यक्ति बहुत कम मिलते हैं। जैसे मणियों में कांतिमान मणियाँ दुर्लभ होती हैं वैसे ही अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा बहुत कम साधकों में होती है। पहले पशुओं में भी कर्तव्य के प्रति निष्ठा देखने को मिलती थी। ऐसे भी घोड़े होते थे कि युद्ध में अपने मालिक के घायल होने पर भी वे युद्धस्थल से लेकर भाग जाते थे और घर के दरवाजे पर हिन-हिनाने लगते थे यह सुनकर बंधुजन तत्काल आकर उस मालिक का उपचार करते थे। अपने कर्तव्य के प्रति ऐसी निष्ठा तिर्यंच भी रखा करते थे। आज इस ओर हम सभी का ध्यान जाना चाहिए और कर्तव्य को कर्तव्य समझकर निष्ठा के साथ उसका पालन करना चाहिए।
आचार्य भगवन् स्वयंनिष्ठा के साथ अपने कर्तव्य का पालन करते हैं और हम सभी लोगों को भी निष्ठा और ईमानदारी के साथ कर्तव्य पालन का उपदेश भी देते हैं। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ गुरु के चरणों में श्रद्धा के साथ मस्तक झुक जाया करता है। प्रदर्शन का त्याग कर कर्तव्य की ओर बढ़ने वाले साधक दुर्लभ ही होते हैं।
कर्त्तव्य को जिसने जीवन में उतार लिया वह किसी भी पर्याय में हो उसकी सदगति की यात्रा प्रारंभ हो जाती है। भटकन की बात समाप्त हो जाती है। कर्तव्यनिष्ठ हमेशा धर्म कर रहा है भले ही वह कहीं भी हो।