प्राचीन काल में सुविधाएँ कम थीं, लेकिन सात्विकता ज्यादा थी। आज सुविधायें तो बढ़ गयीं लेकिन सात्विकता एवं सादगी समाप्त होती चली जा रही है। इसलिए उपदेशक का समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। साधनों के चक्कर में आज साधना भटक गयी है, निरीहता एवं सादगी के बिना त्यागी (उपदेशक) का समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। सात्विकता के साथ ही व्रतों का पालन होता है एवं उसी का समाज पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार का उद्बोधन आचार्य श्री जी के श्रीमुख से चल रहा था इतने में किसी सज्जन ने शंका व्यक्त करते हुए कहा - कि आचार्य श्री जी वर्तमान में प्रवचन के बिना भी तो प्रभाव नहीं पड़ता ? आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा - नहीं, ऐसा नहीं है, "वर्धमान को देखो, वर्तमान को नहीं।" प्रवचन में बुद्धि विलास नहीं करना पड़ता बल्कि धार्मिक बातें करनी पड़ती हैं। विषय कषाय से बचने का उपदेश देना होता है। इसी से प्रभावना होती है। इसलिए संकीर्णता को मिटाकर एकता, वात्सल्य को अपनाना चाहिए। आज धर्मशाला चाहिए, चाहे धर्म रहे या नहीं। यह बड़ी विडम्बना है। जब मैंने पहली बार नैनागिर में चातुर्मास किया तब एक छोटी सी टपरिया (झोपड़ी) में प्रवचन होते थे। आज जितनी सुविधायें बढ़ गयीं उतनी दुविधायें भी बढ़ने लगी हैं।
उपदेशक का झुकाव वैराग्य की ओर, आत्मदर्शन की ओर होना चाहिए न कि प्रदर्शन की ओर। त्यागी को आईना बनना चाहिए काँच नहीं। ताकि दूसरे लोग आपको आदर्श मानकर अपना प्रतिबिंब देख सकें एवं आपका जीवन समाज के लिए आदर्श कायम कर सके।
(21.10.2003)