पाप से बचने के लिए दशों दिशाओं में आवागमन की सीमा बांध ली जाती है। जिसे दिग्व्रत कहते हैं। दिग्व्रत के माध्यम से निष्प्रयोजन पाप से बच जाते हैं। दिशाओं की सीमा बांध लेने पर उसके आगे या बाहर के पाप से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाते हैं। अपने उपयोग को सीमित रखने का रास्ता द्रव्य-क्षेत्र-काल की अपेक्षा से सीमित हो जाना है। आज व्यक्ति सीमा बांधने की बात ही नहीं करता बल्कि सात समुंदर पार जाने की बात कर रहा है लेकिन कबहुँ न सुख संसार में, सब जग देखो छान इस बात को भूल जाता है।
आचार्य श्री जी ने बताया कि- आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सामने चर्चा के दौरान दिग्व्रत की बात चली। तब ज्ञानसागर जी महाराज ने बताया कि -पण्डित सदासुखदास जी से सेठजी ने कहा - पण्डितजी, आप आ जाना। उन्होंने पूँछा क्यों ? सेठजी बोले-शिखरजी चलना है। पण्डितजी ने कहा-हम नहीं जायेंगे। क्योंकि, हमने शिखरजी की वंदना कर ली है और जिस क्षेत्र की हम वंदना कर लेते हैं वहाँ न जाने का संकल्प कर लेते हैं। सीमा से बंध जाते हैं। वे वास्तव में सदासुख ही थे। वे जल ते भिन्न कमल जैसे ही रहते थे। हमेशा रत्नत्रय प्राप्ति की भावना रखते थे लेकिन उस समय साधुओं का सद्भाव नहीं था इसलिए रत्नत्रय धारण नहीं कर पाये।
मोह को काटने का अमोघ शस्त्र है 'संकल्प'। संकल्प ले लेने से पाप के विकल्प भी कम हो जाते हैं और संकल्प से पूर्व बंधे हुये कर्म भी निर्जरित होने लगते हैं। विकल्प को छोड़ने की साधना ही मोक्ष मार्ग की साधना है। विकल्प संसार जाल में फंसाने वाले हैं। विकल्पों से बचने वाला संसार जाल में फंसने से बच जाता है।
इस प्रसंग से यह शिक्षा मिलती है कि-श्रावकों को कम से कम आवागमन करना चाहिए। सभी दिशाओं में जाने की सीमा बांध लेना चाहिए तभी वह पाप से बच सकता है। कल्याण का रास्ता प्रशस्त कर सकता है।