सारा संघ अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी में विराजमान था। श्रावण शुक्ला षष्ठी का दिन था संघस्थ 22 मुनिराजों का उस दिन दीक्षा दिवस था। दूर-दूर से आये हुये श्रद्धालुगण प्रवचन सभागार में बैठकर गुरु महाराज का अमृत पान करने के लिये बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। इंतजार की घड़ियाँ समाप्त हुईं देखते ही देखते आचार्य महाराज ससंघ मंच पर विराजमान हो गये। इस धर्म सभा का संचालन भोपाल से पधारे कवि चंद्रसेन जी कर रहे थे। कवि चंद्रसेन जी ने गुरुदेव के चरणों में कुछ पंक्तियाँ निवेदित कीं।
गुरुदेव भक्तों की भक्ति से
बचकर दूर कहाँ तक जाओगे।
गली-गली में भक्त बिछे हैं।
अब कैसे बच पाओगे।
तुम्हे भक्तों ने हैरान कर दिया
हमने माना बात सही है।
पर लाखों लोगों ने तुमको चुरा लिया
तुमको कोई खबर नहीं है।
हमने भी चोरी की गुरुवर
इस चरण चोर को सजा सुना दो।
हम ऐसी ही चोरी करते जायें
अपना कृपा हाथ उठा दो।
बस इसमें कौन सी लगेगी धारा
हमको बतला दो गुरुवर।
यदि चोरों को माफ कर दिया तो
एकनजर मुस्कुरा दो गुरुवर॥
इन पंक्तियों को सुनकर आचार्य भगवन्त उन्मुक्त भाव से मुस्कुरा दिये। हजारों भक्त आनंद से भर गये, ऐसा लग रहा था मानो साक्षात् समवशरण में बैठे हों और प्रभु को अपलक निहार रहे हों। आचार्य भगवन्त मुस्कुरा कर चुपचाप रह गये लेकिन जैसे ही कुछ समय बाद प्रवचन प्रारंभ हुआ तो उन्होंने कहा - भैया, ये दिन दहाड़े चोरी करते हैं और मामला कोर्ट कचहरी तक पहुँचा देते हैं और पूँछते हैं कौन सी धारा लगेगी। तो भैया मुझे तो बोलना ही पड़ेगा कि हम सभी शांतिनाथ भगवान के दरबार में बैठे हैं। हमारे पास तो बस एक ही धारा है वह है - ‘‘शांतिधारा''। यह सुनकर जनता जयकारों के साथ तालियाँ बजाती रही।