वैशाख कृष्ण सप्तमी को दीक्षा दिवस के दिन हम सभी (दीक्षित) महाराज आचार्य महाराज के श्री चरणों में नमोऽस्तु करके बैठ गये। आचार्य महाराज ने कहा -क्यों कुछ कहना है क्या ? शिष्य ने कहा - नहीं! कुछ सुनना है आपसे। तब आचार्य महाराज ने कहा मोक्षमार्ग तो भीतर अधिक है। बाहर कम। इसलिए साधक को हमेशा अंदर यानि आत्मा में ही रहना चाहिए बाह्य प्रवृत्ति कम करना चाहिए। आगे उन्होंने कहा
भरा घड़ा तो
खाली लगे जल में
हवा से बचें।
जैसे भरा हुआ घड़ा भी जल में डूबा हो तो खाली-सा लगता है। लेकिन, ज्यों ही पानी से बाहर आता है तो दुगुना भार का हो जाता है। ठीक उसी प्रकार साधक जब आत्मा में (अंतरंग में) रहता है तब अपने आप को हल्का-हल्का महसूस करता है लेकिन ज्यों बाहर आया, व्यवहार में कि भार सा लगने लगता है। आज संसार में जो भी विचित्रता दिखायी दे रही है यह सब गड़बड़ी बाहरी हवा के कारण हो रही है। इसलिए, साधक को मात्र अपनी आत्मा की साधना में लगे रहना चाहिए बाहरी हवा (प्रलोभनों) से बचते रहना चाहिए।
नौ मास उल्टा
लटका आज तप
कष्ट कर क्यों ?
यदि संसारी प्राणी को यह ज्ञात हो जावे कि वह नव मास तक माँ के पेट में उल्टा लटका रहा तो फिर उसे ये कष्टकर प्रतीत नहीं होंगे उन्होंने आगे बताया की -
इस वेग में
अपढ़ हों या पढ़े
सब एक हैं।
उस वेग में यानि मोक्षमार्ग में संवेग, निर्वेद में पढ़े और अपढ़ दोनों एक से हैं। क्रोध के वेग में पढ़े और अपढ़ दोनों एक से हैं इसलिए ज्ञान के पीछे नहीं भागना चाहिए स्थिर ज्ञान ही ध्यान है। ज्ञान महत्त्वपूर्ण नहीं है मन की स्थिरता महत्त्वपूर्ण है। अध्यात्म स्टेरिंग की भांति है जिसके माध्यम से रत्नत्रय रूपी गाड़ी को जैसा चाहो वैसा मोड़ सकते हो। उपसर्ग परीषह के समय अध्यात्म ही काम आता है। साधक को हमेशा अध्यात्ममय जीवन जीना चाहिए।
अध्यात्म योगी गुरुदेव की प्रत्येक चर्या में, शब्द में अध्यात्म का रस भरा हुआ है वे अध्यात्म का जीवन जीते हुये हम सभी को उसी अध्यात्म का पान कराते हैं। उनके उपकारों से हम सब कृतज्ञ हैं। जीवन भी समर्पित कर दिया जावे इन चरणों में तो क्या, उपकार चुकाया जा सकता है? नहीं! कभी नहीं। उन अनंत उपकारी गुरुदेव के चरणों में बार-बार नमोऽस्तु......
मन को वश में करके
कोई क्यों नहीं
देख लेता
इस परम सत्य को
कि
मन को वश में
करने से
नर की तो बात ही क्या
जब नारायण भी
वश में हो जाते हैं.....
(अतिशय क्षेत्र रामटेक जी 26.04.2004)