मनुष्य के पास पाँच इन्द्रियाँ हुआ करती हैं जिनके माध्यम से वह विषयों को ग्रहण करता रहता है। यह संसारी प्राणी अनादिकाल से चार संज्ञाओं (आहार, भय, मैथुन और परिग्रह) और पंचेन्द्रियों के विषयों के वशीभूत होता आया है और ज्ञान का हमेशा दुरुपयोग करता आया है। इसने अपने मन को कभी भी वश में नहीं किया इसलिए इसके इतिहास में पाँच पापों की लालस्याही पुती हुई है।
आचार्य श्री जी ने बताया कि-पाँच इन्द्रियों का व्यापार जीव की मानसिकता को बता देता है। यह जीव स्वयं इन्द्रिय और मन का दास बनकर उसकी पूर्ति करता रहता है, आप सभी लोगों की भी यही दशा है। आप बरसात में वाटरप्रूफ पहनते हो, सर्दी में एयरटाइट पहनते हो और गर्मी में एयर कंडीश्नर में रहते हो। ध्यान रखना, इससे पापों का ही विकास हो रहा है।
आचार्य भगवन् कहते हैं - पंचेन्द्रिय और मन के नौकर मत बनो, उन्हें अपना नौकर बनाओ आप मालिक बनों, उन्हें वश में रखो। जीवन में कुछ व्रत, नियम स्वीकार करो। अंत में उन्होंने कहा-व्रत ऐसा पक्का होना चाहिए जैसे कपड़े पर लगा पक्का रंग, जो कपड़ा फटने तक रहता है, उड़ता नहीं। ठीक उसी प्रकार लिये गये प्रण भी ऐसे हों कि प्राण चले जावें तब भी निभाना चाहिए।
इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि व्रत, नियम, संयम की ओर कदम बढ़ाना चाहिए तभी हमारा मानव जीवन सार्थक हो सकता है। क्योंकि, इस पापमय जीवन को पवित्र बनाने का एक ही उपाय है ‘संयम'। प्राण तो पुनः मिल सकते हैं लेकिन प्रण मिलना कठिन है। इसलिए, प्राणों की रक्षा में प्रण नहीं छोड़ना चाहिए। बल्कि, प्राण चले जाने पर भी प्रण नहीं जाना चाहिए। प्रण की रक्षा करोगे तो प्राणों की रक्षा अपने आप हो जावेगी।
व्यर्थ नहीं वह साधना, जिसमें नहीं अनर्थ।
भले मोक्ष हो देर से, दूर रहे अघगर्त ॥
(अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी 2005)