सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर में सारा संघ विराजमान था। आचार्य भगवन्त के श्रीमुख से तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथ का वाचन हम सभी लोग सुन रहे थे। नवम अध्याय के आठवें सूत्र का व्याख्यान करते हुए कहा कि-मार्ग से स्खलित न हो पायें एवं निर्जरा स्थान बना रहे। इसके लिए साधक को हमेशा उपसर्ग, परीषह सहन करना चाहिए, पीछे नहीं हटना चाहिए। क्योंकि, धर्म बड़ी ही कठिनाई से प्राप्त होता है और इसका पालन करना भी कठिन होता है। परीषह सहन करने से कर्मों की निर्जरा होती है एवं साधना में निखार आता है। मोक्षमार्ग के साधक को कभी भूलकर भी ठण्ड में हीटर का एवं गर्मी में पंखे का उपयोग नहीं करना चाहिए। यह चर्या वीर भगवान की चर्या है इस चर्या का भगवान ने भी पालन किया है इसके महत्त्व को समझना चाहिए।
आचार्य भगवन्त ने अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की साधना के बारे में बतलाया कि- एक बार एक सज्जन ने आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज, जिस पाटे पर विराजमान थे उस पाटे पर लकड़ी का तकिया (सिरहाना) रख दिया। तब आचार्य महाराज जी ने कहा भैया लकड़ी की क्यों मखमल की लगा दो फिर वह व्यक्ति महाराज श्री का अभिप्राय समझ गया कि महाराज इसे भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। बल्कि, हमें शिक्षा दे रहे हैं। कि साधु सुविधा के साथ नहीं रहते और वह व्यक्ति दो-तीन दिन तक महाराज जी के पास आया ही नहीं। उसे अपनी गलती महसूस हो गयी। यह साधना थी, आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की। आज हम परीषहों से घबराते हैं। हमें भी ऐसे साधकों से शिक्षा ले लेना चाहिए कि मार्ग तो मार्ग होता है। सिद्धांत, सिद्धांत होता है उसमें समझौता नहीं होता। इस मार्ग पर चलने वाले के तो प्रत्येक बात को सहन करने पर निर्जरा होती है। घबराओ नहीं, जिनदर्शन के प्रति विशुद्धि हमेशा बनी रहनी चाहिए।
(19.09.2002 सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर)