उस समय सारा संघ नेमावर में साधनारत् था। गर्मी का समय था, रात्रि में 12 बजे तक गरम हवा चलती थी। रात्रि में नींद नहीं ले पाते थे। कुछ महाराजों ने आचार्य महाराज से निवेदन किया कि- हम लोग नदी में जाकर रेत में रात्रि विश्राम करने के लिए चले जाया करेंगे। तब आचार्य महाराज ने कहा ठीक है, जाओं नदी में रेत भी है और वहाँ श्मशान भी है, दो चार महाराज हो जाओं ठीक रहेगा। कुछ सोचकर बोले - अगर रात्रि विश्राम के लिए वहाँ जा रहे हो तो मेरा आशीर्वाद नहीं है बल्कि साधना करने जा रहे हो तो मेरा आशीर्वाद है।
आचार्य महाराज स्वयं पहले राजस्थान में केकड़ी गाँव आदि में नदी की रेत में ही रात्रि में साधना किया करते थे। वही हम सभी को उपदेश भी देते हैं कि- आतमराम को भजो, विश्राम आराम को तजो, विश्राम करना ही है तो आत्मा में विश्राम करो। ध्यान रखो शरीर को सुविधा मत दो। इतनी गर्मी पड़ रही है फिर कुछ नहीं। एक बार द्वितीय शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि जल जावे जो काम हो जावेगा। जब तक यह अग्नि नहीं जलती तब तक इस शरीर की गर्मी (यात्रा) समाप्त नहीं होगी। इस शरीर को क्या इसे तो इक दिन जलना ही है
लायक बन नायक नहीं, पाना है विश्राम।
ज्ञायक बन गायक नहीं, पाना है शिवधाम।।