आज भौतिकता के युग में धार्मिक संस्कार प्रायः लुप्त होते चले जा रहे हैं। संस्कारों के बारे में आज के मानव का रुझान ही नहीं रहा है। आज का युग मात्र अर्थ तक ही सीमित रह गया है। अर्थकरी विद्या को ही आज महत्व दिया जा रहा है, इस अर्थ के युग में परमार्थ की बात गौण होती जा रही है। आज व्यक्ति धन के लिए घर-परिवार, धर्म सब कुछ छोड़कर, सात समुन्दर पार जाने को तैयार है लेकिन, संस्कार के अभाव में धन, क्या जीवन को सार्थक बना सकता है? जीवन की सार्थकता तो धार्मिक संस्कारों में ही है। इसके बारे में सोचना अनिवार्य है।
आचार्य महाराज ससंघ बीना बारहा अतिशय क्षेत्र में विराजमान थे। उस समय आत्मानुशासन ग्रंथ की वाचना चल रही थी। संस्कार के बारे में व्याख्यान करते हुए आचार्य महाराज ने कहा कि-संस्कार बचाये रखना चाहते हो तो बच्चों का निर्यात बंद कर दो, विदेश भेजना बंद कर दो। सात्विक व्यापार से सात्विक धन कमाओं वही सुख-शांति देगा। किसी सज्जन ने कहा-आचार्य श्री ! आज हमारे देश का व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की ओर बढ़ रहा है। यह सुनकर आचार्य श्री जी बोले कि -अन्तर्राष्ट्रीय की जगह अन्तर्दृष्टि व आत्मजगत की ओर बढ़ो। संस्कारों को जीवित रखना चाहते हो तो आत्मा की बात सुना करो, पढ़ा करो। मात्र अर्थ की शिक्षा को ही सर्वोपरि मत बनाओ।
विदेश में जाकर रहने से कुलाचार का भी पालन नहीं हो पाता, रोज मंदिर नहीं जा सकते। देव दर्शन की वहाँ पर समुचित व्यवस्था नहीं है। अमेरिका जैसे देश में मंदिर भी हैं। लेकिन बहुत दूर हैं प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन नहीं जा पाते जिसके कारण उनका कुलाचार का भी पालन नहीं हो पाता। फिर अन्य धार्मिक संस्कारों की तो बात ही नहीं होती।
(अतिशय क्षेत्र बीना बारहों जी 30.08.2005)