किसी सज्जन ने आचार्य महाराज से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- हे गुरुदेव! पिच्छिका ग्रहण करते ही, दीक्षा लेते ही, इतनी सी उम्र में मुनिराजों में इतनी गंभीरता कैसे आ जाती है ? आचार्य भगवन्त ने शंका का समाधान करते हुए कहा - पिच्छिका में ऐसा ही जादू हुआ करता है। हर्ष-विषाद से परे (दूर) हो जाने पर गंभीरता अपने आप आ जाती है। जितना गहरा तत्त्वज्ञान होता है उतनी ही मन की स्थिरता अधिक होती है। मन, सभी परिस्थितियों में स्थिर बना रहता है। यह वस्तु स्वरूप है। वस्तु का परिणमन हमेशा अपने मन के अनुरूप नहीं हो सकता। यह श्रद्धान होते ही कुछ करने की धारणा बदल जाती है। मात्र ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव रह जाता है। राग-द्वेष का अभाव होते ही मन अपने आप एकाग्र हो जाता है एवं समता, शांति का उद्भव हो जाता है। मन में वैराग्य उत्पन्न होते ही संसार की क्षणभंगुरता का भान हो जाता है फिर मन उछल-कूद करना बंद कर देता है।
कर्तृत्व-भोक्तृत्व और स्वामित्व की बुद्धि जब तक हमारे जीवन में रहेगी तब तक हमारा मन चंचल बना रहेगा। इस बुद्धि का अभाव होते ही व्यक्ति कर्त्तव्य की ओर मुड़ जाता है एवं उसका मन स्थिर हो जाता है। मन की स्थिरता ही वस्तु तत्त्व के स्वरूप को सही ढंग से जान सकती है अनुभव करा सकती है।
दृष्टि मिली पर कब बनूँ, दृष्टा सबका धाम।
सृष्टि मिली पर कब बनूँ, सृष्टा निज का राम।