जो जैसा स्वयंजीवन में जीते हैं ,वही औरों को भी उपदेश देते हैं। उनकी कथनी हमेशा करनी से भरी हुई होती है जो कि हम सभी को अंदर से प्रभावित करती है उनके प्रति श्रद्धान को मजबूत बनाती है। गर्मी का समय था कुण्डलपुर में ग्रीष्मकालीन वाचना प्रारंभ हो चुकी थी। वहाँ पर विशेष रूप से चारों ओर कुण्डलाकार पहाड़ी होने से गर्मी ज्यादा पड़ती है वहीं ऊपर पहाड़ पर शौच क्रिया के उपरान्त आचार्य महाराज एवं हम कुछ महाराज पेड़ के नीचे बैठे हुए थे। चर्चा चल रही थी, चर्चा के दौरान आचार्य महाराज ने शिक्षा देते हुए कहा - पहले मुनिराज ऐसे ही जंगलों में, पहाड़ों पर, गिरि-गुफाओं में रहा करते थे। आज हीन संहनन की वजह से नगरों में रहने लगे। आज हम इतनी साधना नहीं कर सकते कोई बात नहीं, लेकिन मौन की साधना एवं नासा दृष्टि रखे रहने की साधना अवश्य कर सकते हैं। नेत्र इन्द्रिय के व्यापार से, इधर-उधर देखने से, पर पदार्थ की ओर दृष्टि ले जाने से राग-द्वेष अधिक होता है एवं बोलने के माध्यम से ही पर का परिचय होता है। जिससे राग-द्वेष बढ़ता है मन में चंचलता आती है। इसलिए, नेत्रेन्द्रिय एवं रसनेन्द्रिय पर संयम रखना अनिवार्य है यदि हमने नेत्रेन्द्रिय एव जिह्वा इन्द्रिय को संयत बना लिया तो समझना आज भी बहुत बड़ी साधना कर ली।
आचार्य महाराज प्रायः घण्टों-घण्टों नासा दृष्टि किए हुए, पद्मासन लगाकर ध्यान मुद्रा में मौन बैठे रहते हैं। और यही हम साधकों से भी उपदेश में कहते हैं। सच है इस कलि काल में भी ऐसी साधना करने वाले साधकों के चरणों में अपना मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है। इनके दर्शन करने से उन जंगलों में रहने वाले मुनियों की याद आती है कि जैसे गुरुदेव हमेशा शहरों से, नगरों से दूर एकान्त जंगली इलाके के क्षेत्रों पर जाकर साधना करते हैं, वे मुनिराज भी ऐसा ही करते होंगे। जैसे हमने शास्त्रों में सुना है, पढ़ा है वैसी ही साधु की अदभुत चर्या के दर्शन उनके चरणों में आकर करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। उन्हें देखकर आँखें तृप्त नहीं होतीं। ऐसा लगता है हमेशा उनकी वीतराग छवि के दर्शन करता रहूँ।
(कुण्डलपुर)