शाम का समय था आचार्य भक्ति के उपरान्त आचार्य श्री जी के चरणों में बैठे हुये थे। तभी कुछ चर्चा के दौरान आचार्य श्री जी ने बताया कि- मैं उस समय ब्रह्मचारी था तब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज से अष्ट सहस्री एवं प्रमेय रत्नमाला का स्वाध्याय कर रहा था। कुछ दिन बाद मेरी सीधी मुनि दीक्षा होने वाली थी। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के पास बड़े-बड़े विद्वान आया करते थे। एक बार मैं प्रमेय रत्नमाला का स्वाध्याय कर रहा था एवं अष्ट सहस्री, वहीं चौकी पर रखी हुई थी। मैं स्वाध्याय में लीन था। वहाँ पं. हीरालाल जी मड़ावर वाले आये मैंने उस ओर ध्यान नहीं दिया वे वहाँ चारों तरफ घूमकर जब वापिस जाने लगे तब उन्होंने कहा -
साधु का पद दूर है, जैसे पेड़ खजूर।
चढे तो फल चाखन मिले, गिरे तो चकनाचूर॥
इतना कहकर पं. जी तो चले गये। मुझे पूरा दोहा याद नहीं रहा क्योंकि मुझे उस समय हिन्दी कम आती थी मात्र इतना ही याद रहा गिरे तो चकनाचूर। मैंने आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज को बताया तो उन्होंने पूरा दोहा सुना दिया। मैंने सोचा कि-वास्तव में साधु का पद ऐसा ही है यदि पा लिया तो आत्मा का रस चखने मिलेगा वरना रह गया संसार में।
जो आत्मा की साधना करते हैं उन्हें साधु कहा जाता है। लौकिक सिद्धि की कामना से रहित होकर उद्देश्य मात्र कर्म निर्जरा और मोक्ष प्राप्ति का होता है तभी जीवन में साधुत्व घटित होता है। मात्र साधु का भेष धारण करने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। यह गुरु महाराज के इस प्रसंग से हमें शिक्षा प्राप्त होती है।