आज का युग ज्ञान-विज्ञान का युग है, इस युग में ज्ञान की पूजा अधिक हो रही है। चारित्र को गौण करते जा रहे हैं। लेकिन ज्ञान के साथ-साथ चारित्र की ओर भी कदम बढ़ाना चाहिए। जो ज्ञान अर्जित किया है उसे प्रयोग में भी लाना चाहिए क्योंकि असंयत ज्ञान कभी भी खतरा पैदा कर सकता है।
पहले के युग में गुरु के सान्निध्य में रहकर ही शिक्षा ली जाती थी उन्हीं के सान्निध्य में ज्ञान आचरण का सर्वांगीण विकास होता है। गुरुकुल आदि की भी पहले यहाँ व्यवस्था भी थी। वहाँ ज्ञान के साथ-साथ सदाचार की भी शिक्षा मिलती थी। यह प्रसंग आचार्य गुरुदेव के श्री मुख से सुना था उस समय अमरकंटक सर्वोदय तीर्थक्षेत्र पर श्रावकाचार ग्रंथ की वाचना चल रही थी। ज्ञान और आचरण का व्याख्यान करते हुए आचार्य महाराज ने बताया कि- मुझे आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज रोज पाँच सूत्र पढ़ाते थे और याद करने को बोलते थे। जब हम याद करके आते थे तब फिर पुनः पाँच सूत्र पढ़ाते थे। जितना पचता था उतना ही देते (पढ़ाते) थे। ज्ञान को वे आज की तरह सर्वांगीण महत्व नहीं देते थे।
आचार्य भगवन् का यह उपदेश है कि हम सभी साधकों को मात्र ज्ञान को ही सब कुछ मान कर नहीं चलना चाहिए बल्कि, आचरण की दिशा में भी आगे उत्तरोत्तर वृद्धि करना चाहिए।
ज्ञान हि भव का कूल है, ज्ञान हि भव का मूल।
राग रहित अनुकूल है, राग सहित प्रतिकूल॥