प्रजा सुरक्षित कर रिपुओं से निजी राज्य अविभाज्य किया।
सुचिर काल तक प्रतापशाली अजेय राजा राज्य किया।
स्वयं आप पुनि मुनि बन वन में पापों का अतिशमन किया।
शान्तिनाथ जिन! दया-धाम हो शान्ति-रमा से रमण किया ॥१॥
पुण्य-पुरुष चक्री बन तुमने चक्र दिखा कर डरा दिये।
छहों खण्ड के नराधिपों को पूर्ण रूप से हरा दिये ॥
समाधि-मय निज दिव्य चक्र पुनि मोह-शत्रु पे चला दिया।
दुर्नय-दुर्जय दुष्ट क्रूर को मिट्टी में बस मिला दिया ॥२॥
राजाओं-के-राजा बन कर राजसभा में राजित थे।
लघु राजाओं के सुख-साधन तुम पर ही निर्धारित थे॥
किन्तु पुनः जब निजाधीन हो आर्हत् पद को प्राप्त हुए।
अगणित अमरासुर-पतिगण में हुए सुशोभित, आप्त हुए ॥३॥
नरेन्द्र जब थे, नरपति–दल ने तब चरणों में शरण लिया।
सदय बने जब मुनिवर तुमको दया-धर्म ने नमन किया ॥
पूज्य बने जिन तव पद युग में सुरदल आ प्रणिपात हुआ।
ध्यानी बनते, कर्म विनसता, हाथ जोड़, नत-माथ हुआ ॥४॥
निजी दोष सब पूर्ण मिटा कर, प्रथम प्रशम बन शान्त हुए।
शान्ति दिलाते शरणागत को, सुचिर काल से क्लान्त हुए ॥
शान्तिनाथ जिन! शान्ति-विधायक, शान्त मुझे अब आप करो।
शरण, चरण में मुझे दिला कर भव-भव का मम ताप हरो ॥५॥
(दोहा)
शान्तिनाथ हो शान्त, कर सातासाता सान्त।
केवल,केवल-ज्योतिमय,क्लान्ति मिटी सब ध्वान्त ॥ १॥
सकल ज्ञान से सकल को जान रहे जगदीश।
विकल रहे जड़ देह से विमल नमूं नत शीश ॥२॥