मुनि बन मुनि-पथ चलते मुनिपन में दृढ़ हो मुनिनाथ हुए।
मुनिसुव्रत प्रभु पाप-रहित हो निज में रत दिन-रात हुए।
मुनियों की उस भरी सभा में अनुपम द्युति से शोभ रहे।
तारक गण के ठीक बीच ज्यों शोभित शीतल सोम रहे ॥१॥
द्वादश विध खर तप कर तुमने देह-मोह सब भुला दिया।
काम रोग को अहंकार को पूर्ण रूप से जला दिया।
मोर-कण्ठ-सम सघन नीलिमा फलतः तव तन में फूटी।
पूर्णचन्द्र के परितः फैली मण्डल-द्युति पड़ती झूठी ॥२॥
चन्द्र चाँदनी सम धवलित शुचि रुधिर भरा है तव तन में।
परम सुगंधित निर्मल तन है ऐसा तन ना त्रिभुवन में ॥
केवल सुख-कर नहीं किन्तु तव तन मन वच की परिणतियाँ।
विस्मय जग को सदा करातीं जिन से मिटती चहुँ गतियाँ ॥३॥
युगों-युगों से जड़ चेतन ये जग के पदार्थ सारे हैं।
ध्रौव्य-जनन-मय तथा नाशमय लक्षण यथार्थ धारे हैं॥
इस विध तव वाणी यह कहती, सकल विश्व के ज्ञायक हैं।
शिव पथ शासन कर्ताओं में कुशल आप ही शासक हैं ॥४॥
निरुपम चौथे शुक्ल ध्यानमय संबल निज में जगा लिया।
अष्टकर्म-मल पाप-किट्ट को जला-जला कर मिटा दिया ॥
भवातीत उस मोक्ष-सौख्य का लाभ आपने उठा लिया।
करो नाश अब मम भव का भी, मन में तव पद बिठा लिया ॥५॥
(दोहा)
मुनि बन मुनिपन में निरत हो मुनि यति बिन स्वार्थ।
मुनिव्रत का उपदेश दे हमको किया कृतार्थ ॥१॥
यही भावना मम रही मुनिव्रत पाल यथार्थ।
मैं भी मुनिसुव्रत बनू पावन पाय पदार्थ ॥२॥