दुष्टाष्ट कर्म दल को करके प्रनाश, पाया स्वभाव जिनने, परितः प्रकाश।
जो शुद्ध हैं अमित, अक्षय बोधधाम, मेरा उन्हें विनय से शतशः प्रणाम ॥१॥
ज्यों ही यहाँ वर रसायन-योग ढोता, पाषाण जो कनक-मिश्रित, हेम होता।
त्यों द्रव्य क्षेत्र अरु काल सुयोग पाता, संसारि-जीव परमात्मपना गहाता ॥२॥
चारित्र से अमर हो वह श्रेष्ठ ही है, होना कुनारक असंयम से बुरा है।
तो भेद भी इन व्रताऽव्रत में अहा! है, ‘छाया-सुधूप' इनमें जितना रहा है ॥३॥
जो आत्म भाव शिव सौख्य यदा दिलाता, स्वर्गीय सौख्य वह क्या न तदा दिखाता।
दो कोस भार सहसा जब जो निभाता, क्यों अर्द्ध कोस तक ले उसको न जाता? ॥४॥
है दीर्घ काल रहता, पल में न जाता, आतंकहीन अरु जो महि में न पाता।
ओ नाकवासिसुख है मन-मोहनीय, क्या क्या कहूँ अमर सौख्य अवर्णनीय ॥५॥
जो दुःख और सुख है तनधारियों का, है व्याज मात्र तृण-बिन्दु, सुखेच्छुकों का।
जैसे भगंदर, जलोदर, कुष्ट रोग, वैसे नितान्त दुखदायक हाय! भोग ॥६॥
विज्ञान जो अतितिरोहित मोह से है, ना जानता वह निजीय स्वभाव को है।
जैसा यहीं मदक, भंग शराब को पी, ना जानता मनुज भक्ष्य अभक्ष्य को भी ॥७॥
माता, पिता अहित और सुता व गेह, औ मित्र, पुत्र, सुकलत्र व अर्थ देह।
ये आत्म से सकल भिन्न सुसर्वथा हैं, पै मूढ़ स्वीय कहता इनको वृथा है॥८॥
पक्षी अहो! दश-दिशागत जो यहाँ पे, प्रत्येक वृक्ष पर वे बसते, जहाँ से।
है स्वीय कार्य वश हो उड़ते उषा में, स्वच्छंद होकर असीम दशों-दिशा में ॥९॥
क्यों मूढ़ श्वान सम है करताति क्रोध, हंता जनों पर, अतः उसमें न बोध।
जो खोदता अवनि को जब फावड़ा से, नीचे झुके वह तदैव निसर्गता से ॥१०॥
जो रागद्वेष करता, वसु कर्म ढोता, संसारि-जीव भव को अति ही बढ़ाता।
अज्ञान से सुचिर है दुख ही उठाता, है नित्य दौड़ भव-कानन में लगाता ॥११॥
आपत्ति एक टलती जब लौं अहा! है, दूजी अहो! चमकती तब लौं वहाँ है।
स्वामी! यहाँ स्थिति सदा घटियंत्र की सी, संसार सागर निमज्जित जीव की भी ॥१२॥
है नश्यमान व परिश्रम प्राप्त अर्थ, रक्षार्थ नेक बनते इसके अनर्थ।
संतुष्ट हाय! इससे निज को मनुष्य, पी मानता घृत यथा ज्वरवान् अवश्य ॥१३॥
धिक्कार! मूर्ख लखता न निजापदा को, क्यों देखता वह सदा पर की व्यथा को।
दावा सुव्याप्त वन में मृगयूथ को जो, रे देखता वह तरुस्थ मनुष्य है ज्यों ॥१४॥
हैं अर्थ को समझते निज से अमूल्य, सम्पत्ति हीन वह जीवन पर्ण तुल्य।
श्रीमंत मानव सदा इस भाँति गाते, आदर्श जीवन धनार्जन में बिताते ॥१५॥
जो अर्थहीन वह मानव सर्वदा ही, दानार्थ अर्थ चुनता व सुखार्थ मोही।
मैं स्नान हूँ कर रहा इस भाँति बोले, ओ पंक से स्वतन को निज हाथ धोले ॥१६॥
प्रारंभ में परम ताप अहो दिलाते, तो प्राप्ति में विषम आकुलता बढ़ाते।
है अंत में कठिन त्याज्य कुभोग ऐसे, भोगें सकाम इनको बुध लोग कैसे? ॥१७॥
सौगंध्यपूर्ण वह चंदन है पवित्र, हा ज्यों देह संग करता बनताऽपवित्र।
काया घृणास्पद अतीव तथा विनाशी, सेवा करें न इसकी ऋषि जो उदासी ॥१८॥
जो श्रेष्ठ मित्र उपकारक जीव का है, होता वही अनुपकारक देह का है।
होती नितांत जिससे जड़ देह पुष्टि, होती कभी न उससे पर जीव पुष्टि ॥१९॥
है एक हाथ खल-खंड अहो दिखाता, तो रत्न अन्य कर में वर सौख्य दाता।
दोनों मिले स्वपरिणामतया यहाँ पे, विद्वान का फिर समादर हो कहाँ पे? ॥२०॥
है देह के वह बराबर सौख्यधाम, आत्मा अमूर्त, नित नित्य उसे प्रणाम।
औ देखता सकल लोक अलोक को है, विज्ञान गम्य, नहिं इन्द्रिय गम्य जो है ॥२१॥
एकाग्र चित्त-बल से सब इंद्रियों का, व्यापार बन्द करके दुखदायकों का।
आत्मा स्वकीय घर में रह आत्म को ही, ध्यावे निजीय बल से तज मोह मोही ॥२२॥
सत्संग से परम बोध यहाँ कमाते, दुस्संग से अबुध हो, हम दुःख पाते।
तो गंध छोड़ वह चंदन और क्या दे? जो पास हो उचित है वह ही सदा दे ॥२३॥
ना जानता परिषहादिक को विरागी, होता न आस्रव जिसे वह मोक्षमार्गी।
अध्यात्म योग बल से फलतः उसी की, होती सही! नियम से नित निर्जरा ही ॥२४॥
मैं हूँ यहाँ परम निर्मल वस्त्र कर्ता, ऐसा पदार्थ युग में विधि-बंध भाता।
आत्मा हि ध्यान अरु ध्येय यदा व ध्याता, तो कौन-सा फिर तदा पर संग नाता?॥२५॥
जो जीव मोह करता, वसु कर्म ढोता, निर्मोह भाव गहता, द्रुत मुक्त होता।
शुद्धात्म को इसलिए दिनरैन ध्याओ, ओ! वीतरागमय भाव स्व-चित्त लाओ ॥२६॥
मैं एक हूँ, परम शुद्ध प्रबुद्ध ज्ञानी, वे ही मुझे निरखते, मुनि जो अमानी।
ये राग, रोष, ममकार, विकार भाव, संयोग जन्य, जड़ हैं, मम ना स्वभाव ॥२७॥
संयोग पाकर तनादिक का यहाँ रे, संसारि जीव दुख भाजन हो रहा है।
तो काय से वचन से मन से तनँ मैं, संमोह को, इसलिए निज को भऊँ मैं ॥२८॥
मेरा नहीं मरण है, फिर भीति कैसी? रोगी नहीं, फिर व्यथा किसकी हितैषी।
मैं हूँ नहीं परम वृद्ध युवा न बाल, ये हैं यहाँ सकल पुद्गल के बवाल ॥२९॥
भोगे गये निखिल पुद्गल बार-बार, संसार-मध्य मुझसे, दुख है अपार।
भोगू, उन्हें!! अब पुनः यह निंद्य कार्य!! उच्छिष्ट सेवन करे जग में अनार्य ॥३०॥
है कर्म कर्म सखि कों निज पास लाता, तो जीव आत्म-हित को नित चाहता वा।
हो जाय स्वीय पद पे बलवान कोई, इच्छा निजीय हित की किसको न होई? ॥३१॥
हे! मित्र त्याग कर शीघ्र परोपकार, हो स्वोपकार रत तू जग को विसार।
होता विमूढ़ पर के हित में सुलीन, मोही दुखी इसलिए मतिहीन दीन ॥३२॥
सत् शास्त्र के मनन से गुरु भाषणों से, विज्ञान रूप स्फुट नेत्र सहायता से।
जो जानते स्वपर अन्तर को यहाँ है, जाने सदैव शिवको सब वे अहा! है ॥३३॥
विज्ञान रूप गुण से निजको जनाता, औ आप में रमण की अभिलाष लाता।
धाता निजीय सुख का जग में तथा है, आत्मा वही 'गुरु' अतः निज आत्म का है॥३४॥
पाता अभिज्ञ न कभी इस अज्ञता को, तो अज्ञ भी न गहता उस विज्ञता को।
धर्मास्तिकाय जग ज्यों गति हेतु मात्र, त्यों ही अभव्य जनको गुरु और शास्त्र ॥३५॥
विद्वेष, राग रति, मोह, विकार रिक्त, औ तत्त्व-बोध थित है जिसका सुचित्त।
आलस्य हास्य तज औ निजगीत गावे, एकांत में वह निजात्म स्वभाव ध्यावे ॥३६॥
ज्यों विश्वसार परमोत्तर आत्म तत्त्व, विज्ञान में उतरता, वह साध्य तत्त्व।
अच्छे नहीं विषय त्यों लगते यहाँ पे, जो प्राप्त हैं सहज यद्यपि रे! धरा पे ॥३७॥
ज्यों ज्यों नहीं विषय है निज को सुहाते, जो जीव को भव सरोवर में गिराते।
त्यों त्यों अहो परम उत्तम साध्य तत्त्व, विज्ञान में उतरता वह आत्म तत्त्व ॥३८॥
आत्मा यदा निजनिरंजन रूप ध्याता, है इन्द्रजाल सम विश्व उसे दिखाता।
अन्यत्र है मन कभी यदि स्वल्प जाता, तो क्या कहूँ वह तदा अति दुःख पाता ॥३९॥
प्यारा जिसे विपिन जो लगता यहाँ है, एकान्त वास करता वह तो सदा है।
आत्मीय कार्य वश हो यदि बोलता है, तो शीघ्र ही तज उसे निज साधता है॥४०॥
विद्वेष, राग, रति से अति दूर जो हैं, वे बोलते यदि तथापि न बोलते है।
ना देखते अपर को लखते हुए भी, जाते नहीं गमन वे करते हुए भी ॥४१॥
कैसे कहाँ व किसका यह कौनसा है, यो प्रश्न भी न करता निज में बसा है।
है जानता न अपने तन को विरागी, जो योग लीन नित है पर वस्तु त्यागी ॥४२॥
जो जीव वास करता सहसा जहाँ है, निर्धान्त लीन रहता वह तो वहाँ है।
जो भी जहाँ रमत मुद्दत से सदैव, अन्यत्र ना गमन हो उनका वृथैव ॥४३॥
ज्ञाता, अचेतनमयी तन का नहीं है, जो देह का स्मरण भी करता नहीं है।
ज्ञानी वही, विविध कर्म न बाँधता है, होता प्रमुक्त उनसे, शिव साधता है॥४४॥
देहादि तो पर, अतः सब दुःख रूप, आत्मा निजीय सुखधाम, सुधास्वरूप।
सारे अतः सतत सादर सन्त लोग, आत्मार्थ ध्यान धरते, तज सर्व भोग ॥४५॥
जो आत्म सौख्य तज इन्द्रिय भोग लीन, मूढात्म है जगत में वह भाग्य हीन।
पाता अतः दुख सदा भव में नितांत, यों बार-बार तनधार अपार क्लांत ॥४६॥
शुद्धात्म को हि वह केवल ध्येय मान, सारे विकल्प तजता, द्रुत हेय, जान।
योगी सुयोग बल से अति श्लाघनीय, पाता सुसौख्य जग जो बुध शोधनीय ॥४७॥
जो नित्य कर्ममय-इन्धन को जलाता, है आत्म जन्य सुख तो शिव रूप भाता।
योगी अतः परिषहादिक से यहाँ पे, हैं खेदता न गहते, नित तोष पाते ॥४८॥
अज्ञान रूप तम को झट जो नशाती, है ज्ञान-ज्योति शिवमार्ग हमें दिखाती।
आराधनीय वह है निज दर्शनीय, स्वामी! मुमुक्षु जन से जग शोधनीय ॥४९॥
है अन्य जीव जड़ पुद्गल अन्य भाता, है ‘तत्त्व सार' यह यों जिन शास्त्र गाता।
जो भी अहो कथन अन्य यहाँ दिखाता, विस्तार मात्र इसका, इसमें समाता ॥५०॥
इष्टोपदेश पढ़ आदर से सुभव्य, ‘मानापमान' इनमें धर साम्य दिव्य।
एकान्तवाद तज, ग्राम अरण्य में वा, धारे चरित्र, जिससे शिव-मिष्ट-मेवा ॥५१॥
गुरु स्मृति
थे भव्य-पंकज-प्रभाकर पूज्यपाद, था आपमें अति प्रभावित साम्यवाद।
वन्दें उन्हें विनय से मन से त्रिसंध्या ‘विद्या' मिले, सुख मिले, पिघले अविद्या ॥